Book Title: Sramana 1990 10
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 46
________________ ( ४४ ) कर दिया था। वर्तमान समाज व्यवस्था में भी हिन्दू धर्म में नारी को पुरुष के समकक्ष गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त है यह कहना कठिन है, यद्यपि नारी चेतना का पुनः जागरण हुआ है किन्तु यह भी भय है कि पश्चिम के अन्धानुकरण में वह कहीं गलत दिशा में मोड़ न ले ले। हिन्दूधर्म में यद्यपि संन्यास की अवधारणा को स्थान मिला हुआ है और प्राचीनकाल से ही हिन्दू संन्यासिनियों के भी उल्लेख मिलने लगते हैं, फिर भी संन्यासिनियों के आचार-व्यवहार के सम्बन्ध में हिन्दूधर्मग्रन्थ प्रायः मौन ही हैं। हिन्दुधर्म में प्राचीनकाल से लेकर आज तक यत्र-तत्र किन्हीं संन्यासिनियों की उपस्थिति के उल्लेख को छोड़कर संन्यासिनियों का एक सुव्यवस्थित वर्ग बना हो ऐसा नहीं देखा जाता है। यही कारण है कि हिन्दू धर्म में विधवाओं, परित्यक्ताओं और अविवाहित स्त्रियों के लिए सम्मानपूर्ण जीवन जीने के लिए कोई आश्रयस्थल नहीं बन सका और वे सदैव ही पुरुष के अत्याचारों और प्रताड़नाओं का शिकार बनीं। चाहे सिद्धान्तरूप में स्त्रियों के संदर्भ में हिन्दू धर्म में कुछ आदर्शवादी उद्घोष हमें मिल जाएँ, किन्तु व्यावहारिक जीवन में हिन्दू धर्म में स्त्रियाँ उपेक्षा का ही विषय बनी रहीं। तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर हम पाते हैं कि हिन्दू धर्म की अपेक्षा जैन धर्म में नारी की स्थिति और भमिका दोनों ही अधिक महत्त्वपूर्ण रही। यों तो जैनधर्म हिन्दूधर्म के सहवर्ती धर्म के रूप में ही विकसित हुआ है और इसीलिए प्रत्येक काल में वह हिन्दूधर्म से प्रभावित रहा है । हिन्दूधर्म के नारी सम्बन्धी दृष्टिकोण और उसके दुष्परिणामों का शिकार वह भी बना है। जिस प्रकार हिन्दूधर्म में वेद-ऋचाओं की निर्माता स्त्री को उनके अध्ययन से वंचित कर दिया गया, उसी प्रकार जैन धर्म में भी स्त्री के लिए न केवल दष्टिवाद के अध्ययन को अपितू आगमों के अध्ययन को भी वर्जित मान लिया गया, यद्यपि प्राचीन आगम साहित्य में स्त्रियों के अंग आगम के अध्ययन के उल्लेख एवं निर्देश उपलब्ध हैं। यह सत्य है कि इस सम्बन्ध में जैनधर्म ने हिन्दुधर्म का अनुसरण ही किया । बृहत्तर हिन्दू समाज का एक अंग बने रहने के कारण जैनों के सामाजिक जीवन में स्त्रियों की स्थिति हिन्दूधर्म के समान ही रही है, फिर भी जैनधर्म की सामाजिक व्यवस्था में हिन्दूधर्म की भाँति बहपत्नीप्रथा इतनी अधिक हावी नहीं हुई कि पुरुष की दृष्टि में स्त्री मात्र भोग्या बनकर रह गयी हो । इसके पीछे जैनधर्म का संन्यासमार्गीय दृष्टिकोण ही प्रमुख रहा है। दूसरे जैनधर्म में प्रारम्भ से लेकर आज तक भिक्षु णीसंघ की, जो एक सुदृढ़ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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