Book Title: Sramana 1990 10
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 48
________________ ( ४६ ) एवं उनके पारस्परिक सम्बन्धों के निर्देश तो करता है, किन्तु कहीं यह उल्लेख नहीं करता है कि चिरप्रव्रजित भिक्षु णी सद्यः दीक्षित भिक्षु को वंदन करे । परवर्ती आगम में भी मात्र ज्येष्ठ-कल्प का उल्लेख है । ज्येष्ठ-कल्प का तात्पर्य है कि कनिष्ठ अपने से प्रव्रज्या में ज्येष्ठ को वंदन करे । यह टीकाकारों की अपनी कल्पना है कि उन्होंने ज्येष्ठ कल्प को पुरुषज्येष्ठ-कल्प के रूप में व्याख्यायित किया । मूल-आगमों में ऐसी कोई भी व्यवस्था उपलब्ध नहीं है, जिसके आधार पर जैनधर्म में स्त्री को पुरुष को अपेक्षा निम्न माना गया हो । आगमों में स्त्री को न केवल मोक्ष की अधिकारी बताया गया, अपितु उसे तीर्थंकर जैसे सर्वोच्च पद की भी अधिकारी घोषित किया गया है । ज्ञाताधर्मकथा में मल्ली का स्त्री तीर्थंकर के रूप में उल्लेख है । अत: हम स्पष्ट रूप से यह कह सकते हैं कि बौद्धधर्म की अपेक्षा जैनधर्म का दृष्टिकोण नारी के प्रति अधिक उदार था । बौद्धधर्म में नारी कभी भी बुद्ध नहीं बन सकती है, किन्तु जैनधर्म में चाहे अपवाद रूप में ही क्यों न हो, स्त्री तीर्थंकर हो सकती है । यद्यपि परवर्ती काल में जैनधर्म की दिगम्बर शाखा में, जो नारी को तीर्थंकरत्व एवं निर्वाण के अधिकार से वंचित किया गया था, वह उसके अचेलता पर अधिक बल देने के कारण हुआ था । चूँकि सामाजिक स्थिति के कारण नारी नग्न नहीं रह सकती थी अतः दिगम्बर परम्परा ने उसे निर्वाण और तीर्थंकरत्व के अयोग्य ही ठहरा दिया । किन्तु यह एक परवर्ती ही घटना है । ईसा की सातवीं शती के पूर्व जैन साहित्य में ऐसे उल्लेख नहीं मिलते हैं । यद्यपि बौद्धधर्म में भिक्ष ुणी संघ अस्तित्व में आया और संघमित्रा जैसी भिक्षुणिओं ने बौद्धधर्म के प्रसार में महत्त्वपूर्ण अवदान भी दिया किन्तु बौद्धधर्म का यह भिक्ष ुणी संघ चिरकाल तक अस्तित्व में नहीं रह सका । चाहे उसके कारण कुछ भी रहे हों । आज बौद्धधर्म विश्व के एक प्रमुख धर्म के रूप अपना अस्तित्व रखता है, किन्तु कुछ श्रामणेरियों को छोड़कर बौद्धधर्म में कहीं भी भिक्षुणी संघ की उपस्थिति नहीं देखी जाती है । यह एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना रही है। चाहे इसके मूल में भी बौद्धाचार्यों के मन में बुद्ध का यह भय ही काम कर रहा हो कि भिक्षुणियों की उपस्थिति से संघ चिरकाल तक जीवित नहीं रहेगा। जबकि जैनधर्म में आज भी सुसंगठित भिक्षुणी संघ उपस्थित है और भिक्षुओं की अपेक्षा भिक्षु गियों की संख्या तीन गुनी से अधिक है । यह बौद्धधर्म की अपेक्षा जैनधर्म के नारी के प्रति उदार दृष्टिकोण का परिचायक है । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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