Book Title: Sramana 1990 10
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 49
________________ ( ४७ ) (३) ईसाईधर्म और जैनधर्म-नारी के सम्बन्ध में ईसाईधर्म और और जैनधर्म का दृष्टिकोण बहुत कुछ समान है। तीर्थंकरों की माताओं के समान ईसाईधर्म में यीशु की माता मरियम को भी पूजनीय माना गया है। साथ ही ईसाईधर्म में जैनधर्म की भांति ही भिक्षुणी संस्था की उपस्थिति रही है। आज भी ईसाईधर्म में न केवल भिक्षुणी संस्था सुव्यवस्थित रूप में अस्तित्व रखती है अपितु ईसाई भिक्ष णियां (Nuns) अपने ज्ञानदान और सेवाकार्य से समाज में अधिक आदरणीय और महत्त्वपूर्ण बनी हुई हैं। ईसाई धर्म संघ द्वारा स्थापित शिक्षा संस्थाओं, चिकित्सालयों और सेवाश्रमों में इन भिक्ष णियों की त्याग और सेवा-भावना अनेक व्यक्तियों के मन को मोह लेती है। यदि जैन समाज उनसे कुछ शिक्षा ले तो उसका भिक्षुणी संघ समाज के लिए अधिक लोकोपयोगी बन सकता है और नारी में निहित समर्पण और सेवा की भावना का सम्यक् उपयोग किया जा सकता है। जहाँ तक सामाजिक जीवन का प्रश्न है, निश्चय ही पाश्चात्य ईसाई समाज में नारी की पुरुष से समकक्षता की बात कही जाती है । यह भी सत्य है कि पाश्चात्य देशों में नारी भारतीय नारी की अपेक्षा अधिक स्वतन्त्र है और अनेक क्षेत्रों में वह पुरुषों के समकक्ष खड़ी हुई है। किन्तु इन सबका एक दुष्परिणाम यह हुआ है कि वहाँ का पारिवारिक व सामाजिक जीवन टूटता हुआ दिखाई देता है। बढ़ते हुए तलाक और स्वच्छन्द यौनाचार ऐसे तत्त्व हैं जो ईसाई नारी की गरिमा को खण्डित करते हैं। जहाँ हिन्दूधर्म और जैनधर्म में विवाह सम्बन्ध को आज भी न केवल एक पवित्र सम्बन्ध माना गया है, अपितु एक आजीवन सम्बन्ध के रूप में देखा जाता है, वहाँ ईसाई समाज में आज विवाह यौन-वासनाओं की पूति का माध्यम मात्र ही रह गया है । उसके पीछे रही हुई पवित्रता एवं आजीवन बन्धन की दृष्टि समाप्त हो रही है । यदि ईसाई धर्म अपने समाज को इस दोष से मुक्त कर सके तो सम्भवतः वह नारी की गरिमा प्रदान करने की दृष्टि से विश्व धर्मों में अधिक सार्थक सिद्ध हो सकता है। (४) इस्लामधर्म और जैनधर्म-जहाँ तक इस्लामधर्म और जैनधर्म का सम्बन्ध है सर्वप्रथम हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि दोनों की प्रकृति भिन्न है । इस्लामधर्म में संन्यास की अवधारणा प्रायः अनुपस्थित है और इसलिए उसमें नारी को पुरुष के समकक्ष स्थान मिल पाना सम्भव ही नहीं है। उसमें अक्सर नारी को एक भोग्या के रूप में ही देखा गया है। बहुपत्नीप्रथा का खुला समर्थन भी इस्लाम में नारी की स्थिति को हीन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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