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( ३४ ) उपलब्ध है। कान्हड कठिआरा और स्थूलभद्र के आख्यान सुविश्रुत हैं, किन्तु इन सब उल्लेखों से यह मान लेना कि वेश्यावृत्ति जैनधर्मसम्मत थी या जैनाचार्य इसके प्रति उदासीन भाव रखते थे, सबसे बड़ी भ्रान्ति होगी। हम यह पूर्व में संकेत कर ही चके हैं कि जैनाचार्य इस सम्बन्ध में सजग थे और किसी भी स्थिति में इसे औचित्यपूर्ण नहीं मानते थे। सातवीं-आठवीं शती में तो जैनधर्म का अनुयायी बनने की प्रथम शर्त यही थी कि व्यक्ति सप्त दुयंसन का त्याग करे । इसमें परस्त्रीगमन और वेश्यागमन दोनों निषिद्ध माने गये थे। उपासक्रदशा में "असतोजन पोषण" श्रावक के लिए निषिद्ध कर्म था ।
आगमिक व्याख्याओं में प्राप्त उल्लेखों से ज्ञात होता है कि अनेक वेश्याओं और गणिकाओं की अपनी नैतिक मर्यादाएं थीं, वे उनका कभी उल्लंघन नहीं करती थीं । कान्हडकठिआरा और स्थूलिभद्र के आख्यान इसके प्रमाण हैं। ऐसी वेश्याओं और गणिकाओं के प्रति जैनाचार्य अनुदार नहीं थे, उनके लिए धर्मसंघ में प्रवेश के द्वार खुले थे, वे श्राविकाएं बन जाती थीं। कोशा ऐसी वेश्या थी, जिसकी शाला में जैन मुनियों को निःसंकोच भाव से चातुर्मास व्यतीत करने की अनुज्ञा आचार्य दे देते थे। मथुरा के अभिलेख इस बात के साक्षी हैं कि गणिकाएँ जिनमन्दिर और आयागपट्ट ( पूजापट्ट) बनवाती थीं। यह जैनाचार्यों का उदार दृष्टिकोण था, जो इस पतित वर्ग का उद्धार कर उसे प्रतिष्ठा प्रदान करता था। नारी-शिक्षा
नारी-शिक्षा के सम्बन्ध में जैन आगमों और आमिक व्याख्याओं से हमें जो सूचना मिलती है, उसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि प्राचीन काल में नारी को समुचित शिक्षा प्रदान को जाती थी। अपेक्षाकृत परवर्ती आगम जम्बद्वोपप्रज्ञप्ति, आवश्यकचूणि एवं दिगम्बर परम्परा के आदिपुराण आदि में उल्लेख है कि ऋषभदेव ने अपनो पुत्रियों ब्राह्मी और सुन्दरी को गणित और लिपि विज्ञान की शिक्षा दी थी। १. देखें, जैन, बौद्ध और गीता का आचार दर्शन, भाग २, डा० सागरमल
जैन, पृ० २६८ । २. ..."असईजणपोसणया
--उपासकदशा १/५१ ३. साविका जाया अबंभस्स पच्चक्खाइ णण्णस्य रायाभियोगेणं। --आवश्यक.
चूणि, भाग १, पृ० ५५४-५५ । ४. जैनशिलालेख संग्रह भाग २ अभिलेख क्रमांक ८
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