Book Title: Sramana 1990 10
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 29
________________ ( २७ ) युगल में पुरुष की मृत्यु बालदशा में हो चुकी थी। अतः इस आधार पर विधवा विवाह का समर्थन नहीं होता है। जैनधर्म जैसे निवृत्ति प्रधान धर्म में विधवा-विवाह को मान्यता प्राप्त नहीं थी। यद्यपि भारतीय समाज में ये प्रथाएँ प्रचलित थीं, इससे इन्कार नहीं किया जा सकता है । विधुर-विवाह जब समाज में बहु-विवाह को समर्थन हो तो विधुर-विवाह को मान्य करने में कोई आपत्ति नहीं होगी। किन्तु इसे भी जैनधर्म में धार्मिक दृष्टि से समर्थन प्राप्त था, यह नहीं कहा जा सकता। पत्नी की मृत्यु के पश्चात् आदर्श स्थिति तो यही मानी गई थी कि व्यक्ति वैराग्य ले ले। मात्र यही नहीं अनेक स्थितियों में पति, पत्नी के भिक्षुणी बनने पर स्वयं भो भिक्षु बन जाता है। यद्यपि सामाजिक जीवन में विधुर-विवाह के अनेक प्रसंग उपलब्ध होते हैं, जिनके संकेत आगमिक व्याख्या साहित्य में मिलते हैं। विवाहेतर यौन सम्बन्ध जैनधर्म में पति-पत्नी के अतिरिक्त अन्यत्र यौन सम्बन्ध स्थापित करना धार्मिक दृष्टि से सदैव ही अनुचित माना गया । वेश्यागमन और परस्त्रीगमन दोनों को अनैतिक कर्म बताया गया। फिर भी न केवल गहस्थ स्त्री-पुरुषों मे अपितु भिक्ष-भिक्षणियों में भी अनैतिक यौन सम्बन्ध स्थापित हो जाते थे, आगमिक व्याख्या साहित्य में ऐसे सैकड़ों प्रसंग उल्लिखित हैं। जैन आगमों और उनकी टीकाओं आदि में ऐसी अनेक स्त्रियों का उल्लेख मिलता है जो अपने साधना-मार्ग से पतित होकर स्वेच्छाचारी बन गयो थीं । ज्ञाताधर्मकथा, उसकी टोका, आवश्यकर्णि आदि में पाश्र्वापत्य परम्परा की अनेक शिथिलाचारी साध्वियों के उल्लेख मिलते हैं।' ज्ञाताधर्मकथा में द्रौपदी का पूर्व जीवन भी इसी रूप में वर्णित है । साधना काल में वह वेश्या को पाँच पुरुषों से सेवित देखकर स्वयं पाँच पतियों की पत्नी बनने का निदान कर लेती है । निशोथचूर्णि में पुत्रियों और पुत्रवधू के जार अथवा धूर्त व्यक्तियों के साथ भागने के उल्लेख हैं । आगमिक व्याख्याओं में मुख्यतः निशीथचूणि बृहत्कल्पभाष्य, १. ज्ञाताधर्मकथा, द्वितीयश्रुतस्कन्ध, प्रथम वर्ग, अध्याय २-५ द्वितीय वर्ग, अध्याय ५, तृतीय वर्ग, अध्याय १-५४ २. ज्ञाताधर्मकथा, प्रथमश्रुतस्कन्ध, अध्याय १६, सूत्र ७२-७४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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