Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen  Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 20
________________ (३) पृष्ठसंख्या पृष्ठसंख्या अरिहन्त औदारिक देहवाले हैं आचेलक्य दश स्थितिकल्पोंमें इसलिये कवलाहारसे उनकी पहला स्थितिकल्प सर्व व्रतोंका देहस्थिति होती है इस मतका अधिष्ठान है । स्त्री परिषहभग्न दिगंबर जैन निराकरण करते हैं ९७-९८ पाखंडी लोग इसे धारण करने में वेदनीय कर्मका केवलियोंमें सद्भाव असमर्थ हैं । इत्यादिक वर्णन १०६-१०७ होनेसे वे आहार लेते हैं इस निदानशल्यके प्रशस्त निदान कथनका खण्डन ९८-९९ और अप्रशस्त निदान ऐसे १०७ शुद्ध अशुद्धका स्मरण न करते भेदोंका वर्णन हुए हम भोजन करते हैं वैसे प्रशस्त निदानके संसारकेवलीभी भोजन करते हैं इस निमित्तक और मोक्षनिमित्त मतका निराकरण १०० भेदोंका वर्णन १०७-१०८ केवलियोंको क्षुधा तृषादि अप्रशस्त निदानके भोगहेतुक ग्यारह परिषद होते हैं ऐसा और मानहेतुक निदान ऐसे आगमके 'एकादश जिने' दो भेद हैं और ये दोनोंभी इस सूत्रमें कहा है इस संसारके कारण हैं १०८-१०९ आक्षेपका उत्तर "स्त्रियोंको अविकल कारण होनेसे पञ्चम परिच्छेद १११-१४३ मुक्ति होती है जैसे पुरुषको होती जीवशब्दकी निरुक्ति है" इस श्वेताम्बर मतका निरसन १०३-१०४ उपयोगका स्पष्टीकरण शरीरकी उष्णतासे हवामें रहने ११२ जीवके अमूर्तिकत्व, मूर्तिकत्व, वाले जन्तुओंका नाश होता है कर्तृत्व, अकर्तृत्वका नयोंके द्वारा परंतु वस्त्र ग्रहणसे उनका नाश विवेचन ११३ नहीं होता अतः आर्यिकायें वस्त्रग्रहण करती है। वे रागा आत्माकी व्यापकता और देहदिभावसे ग्रहण नहीं करती हैं, परिमाणता, सोपाधिकत्व और इस अभिप्रायका खण्डन- १०४-१०५ निरुपाधिकत्व का नयदृष्टिसे वर्णन ११३ नग्नतासे स्त्रियोंके मनमें लज्जा उत्पन्न होती है इसलिये आत्माके संसारित्व, मुक्तत्व, मुनियोंको नग्नता धारण करना सिद्धत्व तथा असिद्धत्व, उर्ध्वगति योग्य नहीं है इस आक्षेपका और संसारभ्रमणका दिगम्बराजैनोंके द्वारा निरसन १०५-१०६ । नयदष्टिसे वर्णन १०१ ११४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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