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शिक्षाप्रद कहानिया जाओ। मैं एक क्षण भी लेट नहीं हो सकती। अगर मैं लेट हो गयी तो न जाने अन्धकार के कारण कितने प्राणी ठोकर खाकर इधर-उधर गिर जायेंगे, काँटों, झाड़ियों में उलझ जायेंगे और भी बहुत सारी परेशानियाँ उत्पन्न हो जाएंगी। अतः आप सब मुझे जाने दो।
इस प्रकार वह जितना भी आगे बढ़ता, उसे जो भी मिलता पेड़-पौधे, हवा, बरसात, पहाड़ आदि वे सब किसी न किसी कार्य में तथा दूसरों की भलाई में लगे हुए थे।
यह सब देखकर मनुष्य ने मन ही मन सोचा कि- इस सृष्टि में यह बड़ी ही अनोखी बात है कि सब अपने-अपने काम और परोपकार में लगे हुए हैं। केवल एक मनुष्य ही ऐसा प्राणी है, जो केवल अपने बारे में ही सोचता है, अपना ही स्वार्थ साधता है। वह किसी के काम नहीं आना चाहता। यह सोचकर उसे बड़ा दुःख हुआ। और उसने उसी क्षण मिट्टी, पानी, हवा और किरणादि सभी को अपना गुरु मान लिया। उनसे प्रेरणा लेकर वह भी परोपकार के कार्य करने लगा।
उक्त कहानी से हमें यह प्रेरणा मिलती है कि- मनुष्य को सबसे ज्यादा परोपकारी होना चाहिए, क्योंकि वह अपने बुद्धि बल से बहुत कुछ कर सकता है। असम्भव को भी सम्भव बना सकता है।
हमारी समस्त प्रकृति ही हमें परोपकार करने की प्रेरणा देती है। इसीलिए कहा भी गया है कि
परोपकाराय फलन्ति वृक्षाः, परोपकाराय वहन्ति नद्यः। परोपकाराय दुहन्ति गावः, परोपकारार्थमिदं शरीरम्॥
अर्थात् वृक्ष परोपकार के लिए फल देते हैं नदियाँ परोपकार के लिए बहती है, गाएं परोपकार के लिए दूध देती हैं। यह शरीर भी परोपकार के लिए ही है, परोपकार के बिना शरीर की कोई सार्थकता नहीं होती।