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शिक्षाप्रद कहानिया जाना होगा। अब उचित यही है कि जीवन भर परिश्रम करके जो समेटा है उसी के बीच शांति से ये गिने-चुने दिन और व्यतीत कर लो, फिर जाना तो है ही। सातवें दिन प्रातः काल तुम्हारे प्रस्थान से पहले मैं आऊँगा तुमसे अंतिम भेट करने।'
धनपति को संत विद्यानन्द की बात पर दृढ़ विश्वास हो गया। अपनी अंतिम वेला उन्हें सामने दिखाई देने लगी। मृत्यु उनके आँखों के सामने नृत्य करने लगी। पल भर के लिए भी उसे भूलना असंभव हो गया। अब उनके लिए घर परिवार पहले जैसा नहीं रह गया था। सब कुछ बदला-बदला लगने लगा। जीवन की धारा भी बदल गयी। कहाँ गया क्रोध, कहाँ गया लालच, कहाँ चली गयी मोह-ममता, वे स्वयं भी नहीं समझ पाये। सब कुछ नीरस दिखाई देने लगा। केवल व केवल एक ही बात याद रही कि- 'रविवार को जाना है।'
ऐसा प्रतीत होने लगा जैसे समय पंख लगाकर उड़ रहा हो बहुत जल्दी रविवार भी आ गया। अभी धनपति स्नानादि नित्यकर्म निपटाकर भगवत् नाम की माला जप रहे थे कि इतने में संत विद्यानन्द उनके द्वार पर प्रकट हो गए। धनपति ने उनके चरणों पर गिरते हुए प्रणाम किया
और कहने लगा- 'आप ने आने में देरी क्यों कर दी मैं तो सुबह से ही तैयार बैठा हूँ आपके दर्शन के लिए।'
संत विद्यानन्द वहाँ का माहौल देखकर बोले- 'अरे! ये कैसा चमत्कार? आप इतनी शांत मुद्रा में बैठे हैं। जो आपके सामने डरते थे वे आपको घेर कर बैठे हैं। घर का वातावरण एकदम शांत दिखाई दे रहा है। आपका क्रोध और चिड़चिड़ापन कहाँ चला गया।'
धनपति बोला- 'मित्र! जब से आपके पास से लौटा हूँ मुझे मृत्यु के अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं दिया। मन में बार-बार यही बात घूमती रही कि सबकुछ छोड़कर सातवें दिन जाना है। अब इतने थोड़े समय के लिए किस पर क्रोध करता? जब सब छोड़कर जाना ही है तो क्या समेटना? आपका महान् उपकार है कि आपने समय रहते मेरी आँखें खोल दी और मेरा अंत सुधार दिया।'