Book Title: Shikshaprad Kahaniya
Author(s): Kuldeepkumar
Publisher: Amar Granth Publications

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Page 209
________________ शिक्षाप्रद कहानिया 199 और उन्हें गंगा की धारा में प्रवाहित कर दिया। तथा उपलों की आग से बनी दो मुट्टी राख पानी में घोली और पी गया। यह सब देखकर सभी मित्रों को बड़ा आश्चर्य हुआ इतने में ही संन्यासी ने अपनी पोटली उठायी और चल दिया अपने गन्तव्य की ओर। तभी मित्र-मंडली में से एक मित्र ने हिम्मत करके संन्यासी को रोकते हुए कहा हे महात्मन्! आपने यह क्या किया? हम सब देख रहे थे कि आपने इतने परिश्रम से रोटियाँ बनाई और फिर उनको जल में प्रवाहित कर दिया खाई भी नहीं। जब खानी ही नहीं थी तो इतना परिश्रम करके बनाई ही क्यों? आपका उक्त व्यवहार बड़ा ही रहस्यात्मक लगता है और हमारे कौतूहल का विषय बन गया है। अतः आप से विनम्र अनुरोध है कि आप हमें इस बात को समझा कर जाइए।' ___यह सुनकर संन्यासी बोला- 'अरे! छोड़िए वो सब कोई खास बात नहीं है। आप तो अपनी पिकनिक का आनन्द लीजिए। हम संन्यासी तो ऐसी उट-पटाँग हरकतें करते रहते हैं।' लेकिन मित्र मंडली नहीं मानी तो संन्यासी बोला- 'ठीक है आप लोग नहीं मानते हो तो सुनो' मैं गंगा मइया की परिक्रमा करने के लिए निकला हूँ। मैंने भिक्षाटन से जो भी रूखा-सूखा मिल जाए उसी से पेट भरने का संकल्प लिया है। जो कि मुझे पर्याप्त मात्रा में मिल भी जाता है। मेरी यात्रा अब समाप्ति पर ही है। लेकिन, मेरा मन पिछले तीन दिन से एक ही रट लगाए हुए है कि इसे रोटी चाहिए। पुनः उसी का स्मरण, उसी का कीर्तन। और कल तो इसने हद ही कर दी। कल शाम को मैं संध्या कालीन गंगा मैया की आरती में इतना तल्लीन हो गया था कि मैं आपको बता नहीं सकता। लेकिन, यह वहाँ भी भटकता रहा, मुझे चैन नहीं लेने दिया, मुझे भटका ही दिया आरती से। क्योंकि इसे रोटी चाहिए थी। इसलिए आज मैंने अपना संकल्प तोड़ते हुए आटा माँगा, नमक माँगा। उपले एकत्रित किए, माचिस माँगी, आग जलाई, पत्थर पर आटा गुथा और तवा माँग कर लाया और फिर रोटियाँ सेंकी। फिर खाने से पहले पानी लेने गया।

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