Book Title: Shikshaprad Kahaniya
Author(s): Kuldeepkumar
Publisher: Amar Granth Publications

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Page 210
________________ शिक्षाप्रद कहानियां भरी दोपहरी की चिलचिलाती धूप में गंगा माई की चमकती लहरों ने आँखों को मोहित कर लिया। बड़ी ही प्रसन्नता और शीतलता की अनुभूति हो रही थी। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि मैं साक्षात् स्वर्ग में विचरण कर रहा हूँ, लेकिन यह भूखमरा मन रोटियों में घूसा हुआ था। बार-बार कह रहा था जल्दी चल, कहीं कुत्ता रोटी न उठा ले जाए, कहीं कौवा न उठा ले जाए। और एक बार तो इस पापी ने यह भी शंका कर ली की कहीं आप लोग ही न उठा लें इसका छप्पन भोग । ' 200 अब आप ही बताइए भला, जो परिक्रमा भी ने करने दे, भगवद्-भजन में लीन न होने दे, प्राकृतिक सौन्दर्य का आनन्द भी ने लेने दे उसे आप मित्र कहेंगे या शत्रु । बस, इसलिए आज मैंने भी सोच लिया कि इस भाई साहब को मजा चखाना चाहिए। रोटियाँ खिला दी जलचरों को इसे पिला दी उपलों की राख जिन पर रोटियाँ सेंकीं थी। अब कल निर्जला एकादशी है, निर्जल रहूँगा । ऐसे ही मानेगा यह यही है इसका इलाज।' मित्रों! यह कहानी केवल उस संन्यासी की नहीं है अपितु, हम सबकी भी कमोबेश यही स्थिति है। हम कोई भी अच्छा काम करने लगे यह हमारा मन हमें भटकाता जरूर है। अब अगर उस समय इसे काबू में कर लिया जाए तो हम सफल हो जाते हैं। और काबू नहीं कर पायें तो गई भैंस पानी में वाली उक्ति चरितार्थ हो जाती है। और हाँ इसके लिए हमें विवेक और बुद्धि का प्रयोग करना अत्यंत आवश्यक है। इस पर अंकुश लगाने के लिए इन दोनों की महती आवश्यकता होती है। क्योंकि ये भाई साहब केवल बुरे काम ही नहीं कराते अपितु, अच्छे काम भी यही कराते हैं। इस लिए कहा जाता है कि मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः । गुणेषु सक्तं बंधाय रतं या पुंस मुक्त्ये ॥ ९४. सुनो सबकी करो मन की पूर्वी भारत के किसी गाँव में एक कुम्हार - कुम्हारी रहते थे। वे दोनों मिल-झुलकर मिट्टी के बर्तन बनाने का काम करते थे। जिससे

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