Book Title: Shikshaprad Kahaniya
Author(s): Kuldeepkumar
Publisher: Amar Granth Publications

View full book text
Previous | Next

Page 206
________________ 196 शिक्षाप्रद कहानिया लेकिन, अंतर्मन में यह दु:खी है। उस समय तो विद्यानन्द चुप्पी लगा गए। लेकिन, फिर शाम को जैसे ही उन्हें एकांत मिला तो उन्होंने धनपति से पूछ ही लिया क्या बात है? मित्र! बड़े व्यथित मालूम पड़ते हो। इतना सुनते ही फूट पड़ा धनपति और कहने लगा- 'मित्र! आपसे क्या छिपाऊँ बड़े ही कष्ट में जीवन बीत रहा है। वैसे तो भगवान् का दिया हुआ सब कुछ है पत्नी बेटे-बेटियाँ, नाती-पोते, धन-संपदा सब है, कोई कमी नहीं हैं। लेकिन पता नहीं क्यों मुझे हमेशा चिन्ता, लोभ-लालच और क्रोध जलाते रहते हैं। मेरा स्वभाव अत्यंत चिड़चिड़ा हो गया है परिवार की किसी उपलब्धि से, या किसी के किसी भी काम से मुझे संतोष नहीं होता। बहुत परेशान हूँ चौबीसों घंटे बुरे-बुरे विचार मेरे मन में उत्पन्न होते रहते हैं। मेरा जीवन तो जैसे नर्क बन गया है लेकिन मित्र एक बात बताओ, जब मैं इतना सब पाकर भी दु:खी हूँ तब तुम इतने सुखी एवं प्रसन्नचित कैसे रह लेते हो? तुम्हारे पास तो कुछ भी नहीं हैं न दो जोड़ी कपड़े, न कल के खाने का ठिकाना, न सिर छिपाने के लिए घर फिर कहाँ से लाते हो इतना संतोष? कैसे रह लेते हो इतना निश्चिन्त और प्रसन्न? ___ यह सब सुनकर विद्यानन्द मंद-मंद मुस्कराते हुए बोले- 'मैंने साधना से जो प्राप्त किया है। वह कठिन जरूर है, लेकिन ऐसा नहीं है कि उसे प्राप्त नहीं किया जा सकता। उसके प्रयोग कष्टदायी हैं लेकिन अंत में सुखदायी हैं। बस, यही राज है मेरे प्रसन्न रहने का। तुम चाहो तो तुम भी इस मार्ग पर चल सकते हो।' यह सुनकर धनपति बोला- 'क्या मैं अब इस उम्र में यह कठिन साधना कर सकता हूँ? मुझे तो यह संभव नहीं लगता।' ___यह सुनकर विद्यानन्द ने कहा- 'हाँ, मुझे भी कुछ ऐसा ही लग रहा है कि शायद ही तुम इस जन्म में यह सब कर पाओ। और हाँ, अब तुम्हारे पास समय ही कितना है? सातवें दिन तुम्हारे जीवन का अंत मुझे स्पष्ट दिखाई दे रहा है। इस होनी को कोई एक दिन भी आगे-पीछे टाल नहीं सकेगा। एक दिन जो जैसा होगा, दूसरे दिन वैसे ही तुम्हें छोड़कर

Loading...

Page Navigation
1 ... 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224