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करना चाहिए। कहा भी जाता है कि
शिक्षाप्रद कहानियां
जरा रूपं हरति हि धैर्यमाशा मृत्युः प्राणान् धर्मचर्यामसूया । क्रोधः श्रियं शीलमनार्यसेवा ह्रियं कामः सर्वमेवाभिमानः ॥
जिस प्रकार वृद्धावस्था रूप का, आशा धैर्य का, मृत्यु प्राणों का, ईष्या धर्माचरण का, क्रोध लक्ष्मी का, अनार्य लोगों की सेवा शील का, काम लज्जा का और अभिमान सभी कुछ का हरण कर लेता है।
३१. त्यागात् शान्तिः
उपरिलिखित उक्ति का अर्थ है- त्याग से शान्ति मिलती है। सामान्य दृष्टि से यह बात अटपटी लग सकती है, लेकिन अगर आप इस पर गहराई से चिन्तन करेंगे तो पाएंगे कि वास्तव में न केवल भौतिक दृष्टि से अपितु पारमार्थिक दृष्टि से भी इस उक्ति की हमारे जीवन में बड़ी सार्थकता है। अगर हम देंखे तो लगाव हमारे सामान्य जीवन में भी रिश्तों को जोड़ता नहीं अपितु, लगाव के कारण रिश्तों में दरार आती है। कहा भी जाता है कि- 'दूर के ढोल सुहावने होते हैं।' और यह बिल्कुल हस्तामलकवत् वास्तविक सत्य है। त्याग के कारण ही हम अपने और दूसरों के जीवन में मिठास घोल पाते हैं। लगाव हमें प्रवृत्ति की ओर ले जाता है तो त्याग हमें निवृत्ति की ओर ले जाता है।
एक बार एक सभा में राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने कहा था कि'यदि दुनिया के सारे धार्मिकग्रन्थ खत्म हो जाए, कोई भी आध्यात्मिक पुस्तक न बचे। और बस केवल 'ईशावास्योपनिषद्' का एकमात्र प्रथम मन्त्र ही बचा रहे, तब भी इससे सम्पूर्ण मानवता अथवा प्राणिमात्र का उद्धार हो सकता है। उस मन्त्र का एक वाक्य है- 'तेन त्यक्तेन भुंजीथा।' अर्थात् आप मात्र त्याग से ही भोग सकते हैं।
हमारे परमादरणीय कुलपति प्रो. वाचस्पति उपाध्याय जी कई सभाओं में कहा करते थे कि - 'आज हमारे इर्द-गिर्द महानन्द, परमानन्द, शुद्धानन्द, सदानन्द, नित्यानन्द, ब्रह्मानन्द, निरजानन्द, कुमारानन्द, रूपानन्द,