Book Title: Shikshaprad Kahaniya
Author(s): Kuldeepkumar
Publisher: Amar Granth Publications

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Page 192
________________ 182 शिक्षाप्रद कहानियां हूँ। तुझे भिखारी समझकर मैं मुफ्त में दवाई दे रहा हूँ, इसलिए तू मेरी और मेरी दवाई की कीमत नहीं जान रहा है। वह दीन-हीन गरीब आदमी अपने पिचके हुए पेट को मलते हुए आगे बढ़ गया। संयोगवश तीसरा घर एक चित्रकार का था। उसने उसके दरवाजे पर जाकर वही याचना की। चित्रकार बाहर आकर बोलादेख भाई, मैं एक चित्रकार हूँ। अच्छे-अच्छे ऐतिहासिक चित्र बनाना मेरा काम है। बड़े-बड़े मंत्री, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति तक मेरे चित्रों को Entry Fees (प्रवेश शुल्क) देकर देखने आते है। अत: तू एक काम कर मेरे सारे चित्र मुफ्त में ही देख ले। यह सुनकर वह बोला- 'हे चित्रकारों के सरताज! चित्र देखना तभी अच्छा लगता है जब पेट में चूहे ना दौड़ रहे हो। अगर आप इन लाखों के चित्रों को दिखाने के बजाए मुझे रूखी-सूखी दो रोटी दे दें तो मुझ पर महान् उपकार हो जाए।' यह सुनकर चित्रकार महाशय बोले- तू तो महामूर्ख है। और यह कहकर उसने अपने घर का दरवाजा बंद कर लिया। असहाय-सा वह गरीब आदमी पेट मलता हुआ इधर-उधर देखने लगा। अभी तक वह तीन दरवाजों पर दस्तक दे चुका था। तीनों पर उसे सिवाय अपमान और हँसी के और कुछ नहीं मिला था। उसकी मदद करने की बात तो दूर रही अपितु, लोगों ने उसकी खिल्ली उड़ाई थी। दयालु मनुष्यों के स्थान पर पत्थर दिल मूर्तियों के दर्शन हुए थे। अतः वह बहुत निराश हो गया और मन ही मन सोचने लगा कि ये सारा गाँव ही राक्षसों का है। अतः इनसे दया धर्म की आशा करना निरर्थक है। यह सोचकर वह किसी दूसरे गाँव में जाने की सोचने लगा संयोगवश जहाँ वह खड़ा था उसके ठीक सामने ही एक पहलवान का घर था। पहलवान घर की छत पर खड़ा-खड़ा यह तमाशा देख रहा था। उसे अपने तीनों पड़ोसियों कवि, वैद्य और चित्रकार पर बहुत ही गुस्सा आ रहा था, लेकिन उस समय वह चुप हो गया। उसने उस गरीब आदमी को बुलाया। भरपेट भोजन कराया और कुछ भोजन सामग्री अलग से भी

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