Book Title: Shikshaprad Kahaniya
Author(s): Kuldeepkumar
Publisher: Amar Granth Publications

View full book text
Previous | Next

Page 194
________________ 184 शिक्षाप्रद कहानिया फिर वह वैद्य जी की ओर घुमकर बोला- 'हे प्राणरक्षक! आप भी दवाई पीकर या खाकर अपनी भूख क्यों नहीं शांत कर लेते?' फिर वह चित्रकार से बोला- 'आप भी बढ़िया से बढ़िया चित्र खाइए और अपनी उदर वेदना को शांत कीजिए। देर किस बात की।' ये सब बातें सुनकर तीनों अतिथि स्वयं को अपमानित हुआ जानकर क्रोधित होते हुए बोले- 'तुम्हारे घर में जो भी कुछ थोड़ा-बहुत बना हो वह खिलाना है तो खिला दो। वरना, हम जा रहें हैं और हाँ सुनो, तुमने हमारे साथ अच्छा नहीं किया। इतना सुनना था कि पहलवान ने आव देखा न ताँव लगा एक-एक को पकड़कर पटकनी देने। तीनों धरती पर लुढ़कते थे और चिल्लाते जाते थे। 'अब इसकी क्या जरूरत थी।' पहलवान कहता जाता था- 'मैं पहलवान हूँ। मेरा काम कुश्ती लड़ना और पटकनियाँ देना है। मैं दूसरों से कुश्ती लड़ने के हजारों रुपये लेता हूँ। लेकिन, तुम्हें अपना पड़ोसी समझकर फ्री-फण्ड में ही पटकनियाँ दे रहा हूँ। इसलिए तुम मेरी पटकियों की कीमत नहीं जानते। लगता है, तुम तीनों महामूर्ख हो। हजारों रूपये की पटकियाँ छोड़कर दस-बीस रूपए का भोजन माँग रहे हो। पहलवान के शिष्य पीछे खड़े यह सब तमाशा देखकर हँसते-हँसते लोट-पोट हो रहे थे। जब अच्छी खासी पटकियाँ खा ली तो तीनों को कुछ होश आया और अपनी गलती का अहसास भी हो गया। तीनों कहने लगेहमसे बहुत बड़ी भूल हो गयी। 'हमने दूसरे के दु:ख को अपने दुःख जैसा नहीं समझा।' 'हमने अपने और पराये में भेद समझा।' 'हमने उस गरीब आदमी से अच्छा बर्ताव नहीं किया।' यह सुनकर पहलवान बोला- हम सबको दूसरे प्राणियों के साथ अपनापन बर्तना चाहिए। जैसा कष्ट हमें होता है, वैसा ही कष्ट उन्हें भी

Loading...

Page Navigation
1 ... 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224