________________
शिक्षाप्रद कहानियां
67
स्वरूपानन्द, करुणानन्द, गिरजानन्द, रामानन्द, कृष्णानन्द, शिवानन्द आदि तो खूब मिल जाते हैं लेकिन, कोई त्यागानन्द दिखाई नहीं देता। वे कहते थे कि हर घर में एक त्यागानन्द होना चाहिए । '
मैं यहाँ एक बात और कहना चाहता हूँ कि - ये जो ऊपर नाम बतलाए गए हैं इनमें सबकी अपनी-अपनी सार्थकता है। और सार्थकता तभी है जब हम इन नामों की सार्थकता को अपने जीवन में, अपने आचरण में उतारे। उक्त इन सभी नामों की सार्थकता में कहीं न कहीं त्याग ही छुपा हुआ है। क्योंकि इनके साथ जो आनन्द शब्द जुड़ा हुआ है उसमें कहीं न कहीं त्याग ही छिपा हुआ है और उस त्याग के बिना वह आनन्द प्राप्त ही नहीं हो सकता जिसकी हम सबको तलाश है। और हाँ, केवल नाम रख देने मात्र से भी कोई त्यागानन्द नहीं हो जाता। यह अन्तरंग का मामला है। बाहर से तो त्याग करने वाले बहुत होते हैं। लेकिन बात तो तब बने जब व्यक्ति अन्तरंग से त्यागी बने। बाहरी त्याग से आपके आपसी रिश्तों में मिठास आ जाए जिससे दूर के ढोल सुहावने लगने लगे। लेकिन वास्तविक शान्ति तो हमें अन्तरंग त्याग से ही मिल सकती है, जिसको कि कोई विरला पुरुष ही कर पाता है। लेकिन, तलाश सबको रहती है।
रही नाम रखने की बात तो ये सब लोकव्यवहार है। अगर नाम से ही कुछ होता तो हर किरोडीमल के पास करोड़ रुपया होता। लेकिन किरोड़ीमलों को भीख माँगते हुए भी देखा जाता है। अब मेरा ही नाम देख लीजिए कुलदीप। अब क्या मैं कुल का दीपक हूँ? यह मेरे लिए चिन्तन का विषय है। लेकिन, शायद अगर मैं कोशिश करूँ तो बन सकता हूँ। ऐसा मेरा मानना है। इस नाम के सन्दर्भ में मुझे यहाँ एक छोटी सी कहानी याद आ रही है। जो मेरे गुरु जी ने मुझे आचार्य की कक्षा में सुनाई थी। यहाँ लिखे बगैर मेरा मन नहीं मान रहा है। अतः उसे मैं यहाँ लिखने का प्रयास कर रहा हूँ।
किसी गाँव में एक व्यक्ति रहता था। माता-पिता ने उसका नाम रखा था ठनठनपाल। उसका विवाह हुआ। उसकी पत्नी का नाम था