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शिक्षाप्रद कहानियां
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सहायक ने इनकी फाइल कर दी प्रस्तुत ! और मुकदमें की सुनवाई शुरू
हो गई।
धर्मराज ने पहले धनपाल को कटघरे में आने का आदेश दिया और पूछा- 'कहो सेठ धनपाल ! तुम अपने कामों के विषय में क्या कहना चाहते हो?'
धनपाल बोला- हे न्यायशिरोमणि! मैंने अपने सम्पूर्ण जीवन में दान-पुण्य और परोपकार के बड़े-बड़े काम किए हैं। गिनते जाइए, मैने पाँच लाख रुपये लगाकर बालकों के लिए एक संस्कृत विद्यापीठ बनवाया। आप स्वयं जाकर देख सकते हैं वह विद्यापीठ आज भी मेरे नाम पर चल रहा है- 'धनपाल संस्कृत विद्यापीठ वाराणसी । उसमें इस समय कम से कम एक हजार विद्यार्थी पढ़ते हैं। और इतना ही नहीं, वहाँ सौ से अधिक अध्यापक और पचासों अन्य कर्मचारी भी काम करते हैं। उन सबको वेतन भी मैं ही देता हूँ। क्या इस महान् कार्य की आपकी नजरों में कोई कीमत नहीं ? '
धर्मराज ने कहा- यह सब कुछ तुमने अपना नाम व कीर्ति फैलाने के लिए किया था। अतः इसे सच्चा दान या परोपकार नहीं माना जा सकता। धनपाल बोला- 'अच्छा! छोड़ो इसे । मैंने 2 लाख रुपये लगाकर गंगा किनारे एक मन्दिर बनवाया था। जिसमें हजारों श्रद्धालु रोज पूजा-अर्चना करते हैं। वह तो सच्चा दान है न?'
धर्मराज ने याद दिलाया - ' वहाँ पर भी तुमने पत्थर पर मोटे-मोटे अक्षरों में खुदवाकर अपना नाम लिखवाया था, यश कमाने के लिए। इसलिए उसे भी सच्चे दान की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता । यह सुनकर धनपाल बोला- 'अच्छा, चलो छोड़िए उसे भी। मैंने शहर के बीचोबीच एक कुआँ बनवाया था उससे तो हजारों-लाखों की पिपासा शान्त होती है। वह तो सच्चा दान होगा?'
यह सुनकर धर्मराज मन्द मन्द मुस्कराते हुए बोले- शायद तुम भूल रहे हो कुएँ पर तो तुमने अपना नाम सुनहरी अक्षरों में लिखवाया