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शिक्षाप्रद कहानिया भाग्य नहीं सुधरा और तुम सफल नहीं हुए। इसमें दूसरे किसी का कोई दोष नहीं है, दोष तुम्हारा ही है।
यह सुनकर कृपालु बोला- पण्डित जी! तो क्या तीर्थयात्रा करना बेकार है। पण्डित जी बोले- नहीं भाई, ऐसा बिल्कुल नहीं है। तीर्थयात्रा का तो हमारे धर्मशास्त्रों में बड़ा महत्त्व बतलाया गया है। लेकिन, तुमने तीर्थयात्रा का मतलब गलत समझा है। असल में हम लोगों में यह अन्धविश्वास एवं गलत धारणा है कि- हरिद्वार आदि की पैदल यात्रा करने से, कावड़ का जल ला कर शिव भगवान् पर चढ़ाने से, गंगा में स्नान करने से तथा और भी इस प्रकार के अनेक क्रिया-कलाप करने से ही हमें पुण्य की प्राप्ति हो जाएगी और हमारे पाप कर्म धुल जाएंगे। जबकि तीर्थ का असली अर्थ तो है- अच्छे और भलाई के काम करना।
अगर कोई व्यक्ति भले ही तीर्थ के जल में स्नाान न करें, अपितु अच्छे एवं भलाई के काम करे तो उसको तीर्थयात्रा का पुण्य अवश्य मिलेगा। इसके विपरीत यदि कोई सालो-साल तीर्थ के जल में नहाता रहे, लेकिन भलाई का कोई काम न करे तो उसकी तीर्थयात्रा बिल्कुल बेकार है। और इच्छित वस्तुओं की प्राप्ति एवं किसी भी कार्य में सफलता हमें पुण्य से ही प्राप्त होती है। इसीलिए कहा भी जाता है कि
'भ्रात! प्रभातसमये त्वरितः किमर्थम्, अर्थाय चेत् स च सुखाय ततः सः सार्थः। यद्येवमाशु कुरु पुण्यमतोऽर्थसिद्धिः, पुण्यैर्विना न हि भवन्ति समीहितार्थाः॥'
अर्थात् हे भाई! प्रात:काल में शीघ्रगमन किस लिए करते हो? यदि तुम धन कमाने के लिए जाते हो, और वह धन सुख के लिए है अर्थात् इष्ट की प्राप्ति के लिए है तो वह धन कमाना तुम्हारे लिए सार्थक है। और यदि ऐसे ही धन से इष्ट की प्राप्ति होती है तो शीघ्रता से पुण्य कार्य करो। ऐसे पुण्य से ही प्रयोजन की सिद्धि होती है। क्योंकि पुण्य