Book Title: Sanskrit Praveshika
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Tara Book Agency

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Page 15
________________ द्वितीय अध्याय सन्धि (Euphonic Combination of Letters) अर्थ-व्याकरण के नियमानुसार वर्गों के मेल को सन्धि' (संहिता) कहते हैं। इसमें दो स्वरों या दो व्यजनों या स्वर तथा व्यञ्जनों का अत्यन्त सामीप्य होने पर निम्न तीन बातों में से कोई एक अवश्य होती है (क) विकार ( Modification )-दोनों वर्गों के स्थान पर या किसी एक वर्ण के स्थान पर एक तीसरा ही वर्ण हो जाना विकार है / जैसे- रमा+ईशः - रमेशः ( लक्ष्मीपति, विष्णु); सुधी+उपास्यः = सुध्युपास्यः (विद्वानों के द्वारा उपास्य) (ख) लोप ( Elision)-किसी एक वर्ष का वहाँ से हट जाना लोप है। जैसे-नराः + हसन्ति - नरा हसन्ति / (ग) आगम (Augment)-दोनों वर्गों के मध्य में एक नया वर्ण आ जाना। जैसे- वृक्ष + छाया- वृक्षच्छाया, तस्मिन् +अद्रौ-तस्मिन्नद्रौ। पूर्ववर्ती वर्गों को न हटाने से आगम मित्रवत् होता है और लोप पूर्ववर्ती वर्ण को हटाने से शत्रुवत् होता है। संयोग और सन्धि (संहिता) में अन्तर-केवल ( स्वरहीन अव्यवहित.) व्यञ्जन वर्गों का मेल संयोग (conjunction) है / संयोग में वर्ण-विकृति नहीं होती है / जैसे-न+द्र-न्द्र। स्वर और व्धजन दोनों प्रकार के वर्गों का मेल (अत्यन्त सामीप्य) अथवा दो स्वरों या दो व्यजनों का मेल सन्धि (cambination) है।' सन्धि होने पर विकृति या लोप या आगम अवश्य होता है। 1. संहितैकपदे नित्या नित्या धातूपसर्गयोः / नित्या समासे वाक्ये तु सा विवक्षामपेक्षते / / उ०, सि. कौ० (अ० 8.4.18) / अर्थ-एकपद में (पौ+ अक:- पावकः ), धातु-उपसर्ग में (नि+अवसत् - न्यबसत् ) तथा समास में (नीलम् + उत्पलम् -नीलोत्पलम् ) सन्धि नित्य होती है / परन्तु वाक्य में (श्यामः + गच्छति-श्यामो गच्छति, श्यामः गच्छति) सन्धि वनता की इच्छा पर (वैकल्पिक ) है। यद्यपि इस श्लोक में वाक्य में सन्धि करना वैकल्पिक बतलाया गया है परन्तु विद्वान् लोग वाक्य में भी सन्धि आवश्यक मानते हैं / सन्धि न करने पर 'विसन्धि' नामक दोष मानते हैं। न संहितां विवक्षामीत्यसन्धानं पदेषु यत् / तद्विसन्धीति निर्दिष्टं न प्रगृह्यादि हेतुकम् / / काव्यादर्श 3.156. 2. हलोजन्तराः संयोगः / अ० 1.1.7.. 3. परः सन्निकर्षः संहिता / अ० 1.4.106. स्वरसन्धि ] 1: व्याकरण सन्धि के प्रमुख तीन भेद-(१)स्वर-सन्धि( स्वर + स्वर)-दो स्वरों की सन्धि को स्वर-सन्धि (अच्-सन्धि) कहते है। जैसे-मा+ईशः= रमेशः दधि+आनय = दध्यानय / (2) व्यञ्जन-सन्धि ( व्यञ्जन व्यञ्जन अथवा व्यञ्जन + स्वर)-व्यञ्जन की व्यञ्जन वर्ण के साथ अथवा व्यञ्जन की स्वर वर्ण के साथ होने वाली सन्धि को व्यञ्जन-सन्धि ( हल्-सन्धि ) कहते हैं। जैसेहरिस् + शेते - हरिश्शेते; चित् + आनन्दः- चिदानन्दः / / 3) विसर्ग-सन्धि (विसर्ग+यजन अथवा विसर्ग+स्वर)-विसर्ग के साथ व्यजन अथवा स्वर वर्णों की सन्धि को विसर्ग-सन्धि कहते हैं। जैसे-हरि+चरति हरिश्चरति, सः+ अपि: सोऽपि / (क) स्वर (अच् सन्धि ( Euphonic Changes in Vowels) 1. दीर्घ-मन्धि ( समान दो मूल स्वरों की सन्धि): ___ अकः सवर्ण दीर्घः ( अक् + संवर्ण अक् - दीर्घ )-अक् ( अ इ उ ऋ ब). परे समान ( सवर्ण) वर्ण ( अ इ उ ऋल) के होने पर [ दोनों के स्थान में ] दीर्घ एकादेश होता है। अर्थात् दो समान स्वरों के मिलने पर उसी वर्ण का एक दीर्ष स्वर होता है। जैसे-क) अ, आ+ अ, आ-आ>दैत्य + अरिः - दैत्यारिः (दैत्य का शत्रु, विष्णु ), न+अस्ति-नास्ति, तथा + अपि तथापि / (ख) इ. ई+इ, ई-ई> श्री+ ईशः श्रीशः (विष्णु, लक्ष्मीपति), मुनि+इन्द्रः मुनीन्द्रः (श्रेष्ठ मुनि), कवि+इन्द्रः कवीन्द्रः, देवी + इव - देवीव / (ग) उ, ऊ+उ, ऊ3>विष्णु+उदयः-विष्णूदयः, वधू+उत्सवः वधूत्सवः। (घ) ऋ, ऋ+, ऋ ऋ>पितृ+ऋणम् -पितृणम्, होतृ + ऋद्धिः होतृद्धिः ( हवन करने वाले होता की ऋद्धि)। (ङ) 'ऋलवर्णयोमिथः सावयं वाच्यम् (वा०)-ऋ और ल में परस्पर सवर्ण संज्ञा होने से 'होतृ + लकारः = होतकारः' रूप बनेगा। अन्य उदाहरण-विद्या + आलयः - विद्यालयः / सती+ईशः = सतीश: (शिव)। भानु + उदयः = भानूदयः / इति + इव -- इतीव / 1. दीर्घ-सन्धि के अपवाद (पररूप एवं प्रकृतिभाव) (क) शकन्ध्वादिषु पररूपं वाच्यम् (वा०)-शकन्धु ( शक देश या शक जाति के लोगों का कुआँ ) आदि में पररूप (पूर्व और पर-वर्ष के स्थान पर पररूप) एकादेश होता है। जैसे-तर्क+अन्धुः कन्धुः , प्राक+ अन्धु:शर्कन्धुः (शक देश के राजाओं का कुआँ), कुल अटा-कुलटा (अभिचारिणी स्त्री), मृत>मार्त + अण्टः - मार्तण्डः (मूर्य), सम + अर्थः समर्थः, सार / अङ्गः- सारङ्गः (मृग या मोर / अन्यत्र - पशुभिन्न अर्थ में --'साराङ्गः' - पुष्ट मङ्गों वाला)। (ख) ईदुदेद्विवचनं प्रगाग ( देखिए, पृ.२२)-हरी+ ईशी हरी ईशौ, विष्णू + उमेशी - विष्णू -उमेशौ /

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