Book Title: Sanskrit Praveshika
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Tara Book Agency

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Page 90
________________ आज्ञा, चाहिए आदि ] 2: अनुवाद उसका उल्लेख नहीं भी किया जाता है (जैसे-४,५)। 30 पुके साथ 'लोट्' लकार का प्रयोग होने पर 'वितर्क' का भाव व्यक्त होता है। जैसे--क्या मैं यह काम करूंकिमहमिदं कर्म करवाणि ? 28. विधि ( कड़ा मादेश), चाहिये,' संभावना आदि अर्थों में 'विधिलिङ' का प्रयोग होता है। 26. कभी-कभी वादेश, आशीर्वाद आदि अनेक अर्थों में लोट्' और 'विधिलिह' दोनों का प्रयोग समानरूप से देखा जाता है। (11) संस्कृतम्प्रवेशिका [पाठ: 6 अभ्यास ५-पया तुम मेरी सब प्रकार से सहायता नहीं करोगे? मनीषा के स्कूल में चार बालिकायें, बीस बालक और तीन अभ्यापिकायें हैं / प्रानार्य कल मेरी कक्षा का निरीक्षण करेंगे। उन्होंने कल आपका बहुत इन्तजार किया / भापके मातापिता कही रहते हैं ? यहाँ पाँच मीठे फल, तीन हरी लतायें, दो लाल पड़े और भाठ सुन्दर फूल हैं / यद्यपि यह बालिका बहुत चतुर है परन्तु पढ़ती कभी-कभी ही है। आज इस स्कूल में अचानक उपद्रव कैसे हो गया ? वाराणसी नगरी बहुत सुन्दर है। तुम्हारा यह कार्य अनुकरणीय होगा / इस नगर का राजा उस गरीब ब्राह्मण को धन देता है। मनीषा अपनी कक्षा में प्रथम रहती है। पाठ 6 : आज्ञा, चाहिए, संभावना और आशीर्वाद / उदाहरण-वाक्य [ 'लोट्' और 'विधिलिङ्' का प्रयोग - 1. तुम पुस्तक पढ़ो = त्वं पुस्तकं पठ। / 2. सत्य मोलो और गुरुओं की सेवा करो-सत्यं वद गुरुम् च शुश्रूषस्य / " 3. वह फूलों को देखे और तुम विद्वज्जनों की सेवा करो- सः पुष्पाणि पश्यतु त्वं च विद्वज्जनान् सेवस्व / 4. मुझे प्रत्युत्तर.दो प्रतिवचनं मे देहि / 5. हे देव ! प्रसन्न होगी और रक्षा करी! हे देव ! प्रसीद, पाहि च / 6. भगवान् सदा तुम्हारी रक्षा करें - भगवान् सदा त्वाम् अवतु / 7. तुम सौ वर्षों तक जियो - त्वं शरदा शतं जीव / प, बाप हरि का भजन करें और उसका फल प्राप्त करें - भवान् हरि भजतु तस्य फलं च लभताम् / 1. उसे पढ़ना चाहिए तथा तुम्हें भोजन करना चाहिये (वह पढ़े और तुम भोजन सरो)- सः पठेत् त्वं च भुक्षीथाः / 10. मैं देशभक्ति से यश प्राप्त कह (मुझे देशभक्ति से यश प्राप्त करना चाहिये) = अहं देशभक्त्या यशः लभेय / 11. वह इस काम को करें और राजा प्रजा की रक्षा करे (उसे यह काम करना चाहिए और राजा को प्रजा की रक्षा करना चाहिए) - सः इदं कर्म कुर्योद (करोतु) राजा च प्रजा रक्षेत् ( रक्षतु.)। 12. शायद वह वाराणसी आये - कदाचित् सः वाराणसीमागच्छेत् / नियम-२७. आज्ञा और आशीर्वाद अर्थ' में 'लोट् लकार का प्रयोग प्रचलित है। माशार्थक वाक्यों में प्रायः म पु० का कर्ता छिपा रहता है। अतः कभी-कभी। 1. यद्यपि आशीर्वाद अर्थ में प्रधान रूप से 'आशीलिङ' का प्रयोग होता है परन्तु / 'लोट् लकार का भी प्रयोग बहुत प्रचलित है (आशिषि लिहलोटो)। १.(क) 'चाहिए' अर्थ में 'तव्यत्', 'अनीयर' आदि प्रत्ययों का भी प्रयोग होता है। (देखिए-पाठ 20) / (ख) कभी-कभी 'अर्हति' (योग्य, समर्थ, उचित होना आदि अर्थ में) क्रिया का भी प्रयोग देखा जाता है / परन्तु ऐसे वाक्यों में अभीष्ट कार्य में 'तुमुन् प्रत्यय का प्रयोग किया जाता है / जैसे-नमा त्यक्तुमर्हसि त्वम् / न त्वं शोचितुमर्हसि / 2. 'लोट्' और 'विधिलिङ्' का निम्न अर्थों में भी प्रयोग होता है [ विधिनि मन्त्रणामन्त्रणाधीष्टसंप्रधनप्रार्थनेषु लिङ् / लोट् च / ]' (क) विधि (कड़ा आदेश)-मधु मांसं च वर्जयेत् वर्जयतु वा विद्यार्थी (विद्यार्थी की गधु और मांस नहीं खाना चाहिए); संदा धर्मम् आचरतु भाचरेत बा (सदा धर्म का आचरण करना चाहिए)। (ब) निमन्त्रण-अच भवान् इह भूक्ताम् भुजीत वा (माज आप यहाँ भोजन कीजिए)। (ग) ओमन्त्रण-अत्र यथेच्छमागच्छतु आगच्छेत् वा (यहाँ इच्छानुसार बायें)। (घ) अनुरोधमा अध्यापयेत् सध्या पयतु वा भवान् ( आप मुझे पढ़ाने का कष्ट करें)। (ड) जिज्ञासा-फिमहं गच्छानि गच्छेयं वा (क्या मैं जाऊँ)? (च) प्रार्थना-मयि दयां कुरु कुर्याः वा (मुझ पर क्या करें); कि भोजनं लभेय लभ वा (क्या भोजन प्राप्त कर सकता है? (0) आशीर्वाद-आत्मसदृशं भर्तारं लभस्व लभेथाः दा (अपने अनुरूप पति को प्राप्त करो)। (ज) आदर-अत्र उपविशतु उपविशेत् वा श्रीमान् (श्रीमान् यहाँ बैठिए)। (अ) इच्छा-भवान् शीघ्र नीरोगो भवेत् भवतु वा (आप शीघ्र स्वस्थ हो जायें)। (ब) उपदेश-सत्यं ब्रूयात् ब्रवीतु बा, प्रियं ब्रूयात, न ब्रूयात् सत्यमप्रियम् (सच बोलो मधुर बोलो, परन्तु अप्रिय-सत्य न बोलो)। (त) कामचारानुक्षा-अपि आस्व आसीथाः बा, अपि शेष्व शयीषाः वा (तुम चाहो तो बैठो, चाहो तो सोमो)। (थ) शपथ-यो मा दुष्ट इति कथयति तस्य पुत्राः प्रियेरन् (जो मुझे दुष्ट कहता है उसके पुत्र मर जायें।

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