Book Title: Sanskrit Praveshika
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Tara Book Agency

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Page 133
________________ 252 ] संस्कृत प्रवेशिका [4-5 यङ्लगन्त एवं नामधातुयें (4) यलुगन्त धातु (समभिहारार्थक)-क्रिया समभिहार में विहित 'यङ्' का लोप हो जाने पर यङ्लुगम्त धातु कहलाती है। इसका प्रयोग वैदिक संस्कृत में मिलता है और इसके रूप परस्मैपद में चलते हैं। यङ्लगन्त धातुओं का अदादिगण में परिगणन होने से 'शप्' विकरण का लोप हो जाता है। 'यह' का लोप हो जाने पर भी [ प्रत्यय-लक्षण नियम से ] द्वित्वादि कार्य होते हैं। जैसेभू>बोभोति / तिम्, सिप और मिप् में वैकल्पिक 'ईट्' का आगम होने से 'वोगवीति' रूप भी बनता है। (5) नामधात ( Denominative)-संज्ञादि सुबन्त (नाम) में जब क्यचादि प्रत्यय (क्य, काम्यच्, काङ्, क्य, विप् , णिच् और णिह) जोड़कर उसे धातु बनाते हैं तो उसे 'नामधातु' कहते हैं। इनमें 'श' विकरण जुड़ता है तथा इनके रूप भ्वादिगण की तरह चलते हैं / इनका प्रयोग प्रायः वर्तमानकाल में होता है। नामधातुओं का प्रयोग कई प्रकार के अर्थों को प्रकट करने के लिए होता है / जैसे (1) इच्छार्थ-आत्मनः पुत्रमिच्छति = पुत्रीयति (पुत्र + क्यच >य ) पुत्र काम्यति (पुत्र + काम्यच् ) वा (अपना पुत्र चाहता है) / तमनः गङ्गाम् इच्छति गङ्गीयति (गङ्गा + क्यच्; अपने लिए गङ्गा की इच्छा करता है)। नदीयति (नदी+क्यच् ) / वधूयति (वधू + क्यम्)। राजीवति (राजन् + क्यच् ) विष्णूयत्ति (विष्णु + क्यच् ) / गव्य ति ( गो + क्यच् ) / माव्यत्ति (नौ + क्य)। (2) आचारार्थ-(क) उपमानकर्म (जिसके समान समझा जाये) छात्रं पुत्रमिवाचरति = पुत्रीयति छात्रं गुरुः (पुत्र + क्यच् गुरु छात्र के साथ पुत्रके समान आचरण करता है)। विष्णु मिवाचरति द्विजम् = विष्णयति द्विजम् (ब्राह्मण के साथ विष्णु के समान आचरण करता है)। कृष्ण इव आचरति = कृष्णति (कृष्ण+विवप्सर्वापहार लोप; कृष्ण के समान आचरण करता है)। इदमिवाचरति=इदामति (इदम् + विवा)। राजेव भावरति = राजानति ( राजनू + क्विप्)। पन्था इव आचरति % पथीनति (पथिन् + विवपु, मार्ग के समान आचरण करता है)। स्व इवाचरति = स्वति (स्व+वियप, आत्मीय के समान आचरण करता है)। बघूयति (वधू + क्यच् ) / कर्वीयति ( कर्तृ + क्यच् ): कृष्ण इवाचरति कृष्णायते (कृष्ण + क्यङ्, कृष्ण का सा आचरण करता है)। अप्सरा इवाचरति = अप्सरायते (अप्सरा+क्या)। विद्वान् 'इवाचरति-विद्वायते या विद्वस्यते (विद्वस्+क्य)। कुमारीव आचरति कुमारायते (कुमारी + क्यङ्; यहाँ स्त्री प्रत्यय 'ई' का लोप हो गया है ) / पाचिकेव आचरति = पाचिकायते (पाचिका + क्यङ्, यहाँ स्त्री प्रत्यय का लोप नहीं हुआ 1. कवाचक उपमान में मसरा प्रत्याराना में स्कालरोय रो। को क्यड सलोपश्च / 37. 3.1.63 5 : नामधातुयें] परिशिष्ट : 3 : प्रत्ययान्त धातुयें [253 क्योंकि इसमें 'क' प्रत्यय जुड़ा है ) / युवतीवाचरति-युवायते (युवती + क्यङ्)। सपत्नीव आचरति सपनायते ( सपत्नी + क्यङ्)। (ख) उपमान अधिकरणप्रासादीयति कुट्या भिक्षुः (प्रासाद + क्यच् भिखारी कुटी को महल समझता है)। कुटीयति प्रासादे राजा (कुटी + क्यच् राजा महल को कुटी समझता है)। (३)करोत्यर्थ-शब्दं करोति = शब्दायते (शब्द + क्यङ शब्द करता है)। पैर करोति = वैरायते (वर + क्यङ् वैर करता है)। कलहं करोति = कलहायते (कलह + पह) / अभं करोति अनायते (अध्र + क्यङ्) मेघ करोति = मेघायते ( मेष + क्यछ ) / घटं करोति = धटयति ( घट् + णिच् घड़ा बनाता है ) / (4) उत्साहार्थ-कष्टाय (पापाय) क्रमते = कष्टायते ( कष्ट + क्यङ्, पाप करने को तैयार होता है)। (5) उद्वमनार्थ-फेनम् उद्वमति = फेनायते (फेन + क्यङ् फेन उगलता है)। बाष्पमुमति = वाष्पायते ( वाष्प + क्यङ्) / ऊष्माणमुद्रमति % ऊष्मायते (ऊष्मा + क्या)। (6) वेदनाथ (अनुभवार्थ)-सुखं वेदयते = सुखायते (सुख + क्या स्वयं सुख का अनुभव करता है। 'परस्य सुखं वेदयते' ऐसा प्रयोग नहीं होगा)। (7) भवत्यर्थ-लोहितं भवतीति = लोहितायते (लोहित + क्यष्; लाल हो / जाता है ) / पटपटायते ( पटपट + क्यच् ) / (8) वर्तन एवं चरणार्थ-रोमन्थं वर्तयति = रोमन्थायते ( रोमन्थ + क्यङ्, रोमन्य = जुगाली करता है)। तपश्चरतीति = तपस्यति (तप् + क्य; तपस्या करता है)। (6) अन्य प्रत्ययों के प्रयोग-मुण्डं करोतीति = मुण्डयति ( मुण्ड + णिच्; मूंडता है) / कृष्णति (कृष्ण + क्वि, कृष्ण के समान आचरण करता है) पुत्रमात्मा नमिच्छति -पुत्रकाम्यति (पुत्र + काम्यच्)। यशस्काम्यति / सपिष्काम्यति / परि. पुग्छयते (परि + पुछ + णि)। (10) 'क्यच' प्रत्यय के विषय में ज्ञातव्य बातें-(१) यह इच्छा और आचार अर्थ में होता है / (2) रूप परस्मैपद में चलते हैं। (3) क्यच् (य) जुड़ने पर-(क) उससे पूर्ववर्ती संज्ञा का अंतिम स्वर परिवर्तित हो जाता, (. आ, इ> ई। उ, ऊ> / ऋ>री / ओ>अब / औ>आय)।(-) ज, ण तथा न् का लोप हो जाता है।

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