Book Title: Sanskrit Praveshika
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Tara Book Agency

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Page 140
________________ संस्कृत में अनुवाद परिशिष्ट : 8 : अभ्यास-संग्रह .. [267. 266 ] संस्कृत-प्रवेशिका [ हिन्दी में अनुवाद मनुष्या यथा मृगयामरविश्य हिंसावृत्तेश्चरितार्थता संपादयन्ति हिनस्वभावा अपि श्वापदाः किं कदाचित् मनुष्यालयमाविश्य तादृशमतिदारुणं कर्म समनुतिष्ठन्ति / ते स्वाभीष्टदेवतायतः सर्वथा निरपराधान् रोद्यमानानासन्नमृत्युशङ्कावेपमानकलेवरान् पशून् बलादुरहत्य स्वहृदयस्यातिकर्कशनृशंसतायाः परिचयं ददति / वस्तुतः तेषां पशूपहारव्यापारमवलोक्य जडानामप्यस्माकं दिदीयंते खलु हृदयम् / (17) मानवा नाम सर्वासु सृष्टिधारासु निकृष्टतरा सृष्टिः / समन्ताद अभिनबोल रविलक्षण सृष्टिम् उत्पादयता भगवता जवत्सवित्रा यादग बुद्धिप्रकर्षः सृष्टिनैपुण्यं च प्रदर्शितम्, मानवसर्ग विद्धता पुनरनेन तत्सर्व मेकपद एव अपहारितम् / मानवा इव कपटव्यवहारकुशलाः हिंसानिरता जीवा न विद्यन्ते / प्रशान्ते च जठारानले स्वोदरपूर्ते नहि हिंस्रस्वभावाः सिंहादयः पशवः करतलगतामपि हरिणशाशकादीन् उपघ्नन्ति / प्रत्युत मुनिव्रता इव शान्त भावमापा विधाम्यन्ति / न केवलभेते पशुभ्यो निकृष्टास्तृणेभ्योऽपि निस्सारा एव / तृणानि खलु वात्यया सह स्वशक्तितः सुचिरम् अभियुष्य वीरपुरुषा इव शक्तिक्षये क्षितितले निपतन्ति, न तु कदाचित् कापुस्पा इव स्वस्थानमपहाय दुतं प्रपलायन्ते / (18) यौवनं सौन्दर्यम् ऐश्वर्य महासत्वता च प्रत्येकमपि प्रभवति जनानाम् / नर्थाय / चतुर्गा पुनरेतेषामेका सन्निपातः सर्वानर्याना सद्य इत्यर्थेऽस्मिन् कः संशयः ? मानवानां विमलमपि मनः यौवन लक्ष्मीपादपल्लवम्यासेनैव समुद्रहति रागम् / वित्तमदेन नष्टविवेको जनः अपथशिनं विटलोकमेव विदग्ध मतिस्निग्धं च विभाष्य स्वकलत्रं स्ववित्तं च तवधीनं विदधाति, पिदधाति च सुजनसमागमद्वारम् / ते मन:प्रसादाप मधुवानमिति, शौर्यस्फूर्तये चौर्यमिति नानाविधमुपदिश्य स्वयश्यान् कल्पयन्ति / एवंविधदुःशिक्षाबलेन स्वचापलेन च राजसूनवः प्रायेण प्रागेवाविनय पश्चात्तारुण्यम्, पुरस्तादेव जाड्यं तदनन्तरमभिषेकम् पूर्वमेव अहंकारं तदनु सिंहासनाध्यासनं च भजन्ते। (19) तथा प्रारभमाणे च राजनि राजनीतिकुशलाः कतिचन सचिवाः समेत्य सप्रणयं व्यजिज्ञपन्-देव ! देकेन अविदितं किञ्चिदस्तीति न प्रस्तुमहे कथयितुम् / तदपि देवपादयोः असाधारणी भक्तिरस्मान्मुखरयति / तदुचितमनुचितं वा प्रणयपरवर्शरस्माभिरभिधीयमानम् आकर्णयितुम् अर्हति स्वामी। देव ! स्वहृदयमपि राशा न विसम्मणीयम्, किमुतापरे / विखम्भेण मन्त्रि निवेशित-राज्यमारा राजानस्तरेव व्यापादिता भवन्तीति। अपि च परिहतनिखिलेवर व्यापारोऽयं स्त्रियाम् अत्यासंगः सर्वथा अनर्यानुबन्धी। यतो रावणः प्रणयमरेज जनकदुहितरि दशरथतनयेन यशःशेषतामनीयत / (2.) भवादशा एव भवन्ति भाजनानि उपदेशानाम् / अपगतमले हि मनसि टिकमणाविव विशन्ति सुखेन उपदेशगुणाः / गुरुवचनम् अमलमपि अभव्यस्य धूल. मुाजनयति / इतरस्य तु सकलं दोषजातं हरति / अयमेव चानास्वादितविषयरसस्य है काल उपदेशस्य / कुशुमशर-शरप्रहारजर्जरिते हि हृदये गलमिव गलत्युपदिष्टम् / गुरुपदेशन नाम पुरुषाणाम् अखिलमल प्रक्षालनक्षमम् मजलं स्नानम् / विशेषेण रजाम् / बिरखा हि तेषामुपदेष्टारः। प्रतिशब्दक इव राजवचनम् अनुगच्छति जनो भपात् / दामदति ते उपदिश्यमानमपि न शृण्वन्ति / शृण्वन्तोऽपि च गनिमीलितेन अवधीरयन्तः खेदयन्ति हितोपदेशदायिनो गुरून् / ख) संस्कृत में अनुवाद कीजिए (1) गङ्गा भारतवासियों की पूज्य एवं पवित्र नदी है। इसमें योग प्रतिदिन श्रद्धा और भक्ति के साथ स्नान करते हैं / यह 'सुरसरित्' भी कहलाती है। इसका उदगम-स्थान गंगोत्तरी है। वहां से निकलकर यह हरिद्वार की समतश भूमि पर बहती हुई पूर्व दिशा की ओर बहती है। इसका जल अत्यन्त पवित्र, निर्मल और . स्वास्थ्यवर्धक है। बहुत समय तक इसका जल सुरक्षित रखने पर भी विकृत नहीं होता है। हरिद्वार, प्रयाग और वाराणसी उसके प्रमुख तीर्थस्थल हैं। (2) भारतवर्ष में नगरों की अपेक्षा ग्रामों की संख्या अधिक है। जो गांवों में रहते हैं वे स्वस्थ, परिचमी और सेवाभावी होते हैं। गांवों में जिस प्रकार की शुद्ध वायु और सूर्य का प्रकाश उपलब्ध होता है वैसा नगरों में कदापि संभव नहीं है। प्राचीन काल में ग्राम्य जीवन आदर्श था परन्तु आज का ग्राम्य जीवन अशिक्षा, कलह और अन्धविश्वास का घर हो गया है। अतः भारतदेश के अधिकारियों से निवेदन है कि ग्राम्य सुधार की ओर ध्यान देवें। (३)हमारा देश स्वर्ग से भी श्रेष्ठ है। स्वर्ग भोगभूमि है और भारत है +मभूमि' / संसार के इतिहास में आध्यात्मिकता की धारा प्रवाहित करने का र भारतीय पियों को ही है। उन्होंने स्वार्थ और परमार्थ का सुन्दर सामन्जस्य प्रस्तुत कर विषय के समक्ष एक सुन्दर आदर्श उपस्थित किया है। हम भारतवासियों का कर्तव्य है कि इस आदर्श को चिरस्थायी बनाये रखें। (4) व्याकरण-शास्त्र का जितना विस्तृत और सूक्ष्म अध्ययन संस्कृत भाषा में हुआ है, उतना अन्य किसी भी भाषा में नहीं। व्याकरण को वेद का मुका मतलाया गया है। प्रातिशाख्यों की रचना के बाद याक मे ही सर्वप्रथम के चतुर्विध विभाजन (नाम, आख्यात, उपसर्ग और मिपात) को मात DAI है तथा यह सिद्ध करने का स्तुत्य प्रयास किया कि माया 'धातु-समूह' ही है। इन्हीं लियाम्सों पर पाणिनिकी नाबालि.

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