Book Title: Sanskrit Praveshika
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Tara Book Agency

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Page 30
________________ धन्, तिन् ] 1. व्याकरण [ 47 भोगः रुध् > रोधः, ह>हारः, (प्रहारः, आहारः, विहारः), हस्>हासः, उपहासः, पट् > पाठः, चर् > चारः (आचारः, प्रचारः); वद् > वादः (विवादः, अपवायः), लम् > लाभः, प्र+नम् >प्रणामः, दिश् >देशः ( उपदेशः, प्रदेशः ), आ+ मुद>आमोदः, विस्तारः (विस्तृ +घञ् / फैलाना), वि+>विकारः (किसी रूप में बदलना) (2) धातु का अन्तिम च>क में और ज>ग में बदल जाता है (जोः कु घिण्यतोः / अ० 7.3.52.) / जैसे-शुच>शोकः, रुज् >रोगः, त्या त्यागः, पच् >पाकः, (पकाना), भुज् > भोगः, मृज> मार्गः। (3) कुछ अन्य 'घ' प्रत्ययान्त रूप-चि>कायः, र >रागः, नि+इ>न्यायः, हन् >घातः, वि + लप् > विलाप: ( रोना) 'क्तिन्' प्रत्यय जोड़ते समय स्मरणीय नियम-कमा प्रत्यय के नियम यहाँ भी लगते हैं। अतः 'त्वा' के स्थान पर "ति' जोड़ देने से क्तिन्' प्रत्ययान्त शब्द बन जाते हैं। जैसे-गम्>गतिः (जाना), स्था>स्थितिः, p>कीर्तिः, सृज् > सृष्टिः, गा>गीतिः, कम> कान्तिः, स्मृ, >रमृतिः, धुध > बुद्धिः, दृग्> दृष्टिः, भ्रम्>भ्रान्तिः, रम् > रतिः, बच्> उक्तिः, मन् > मतिः / संस्कृत-प्रवेशिका [ 3 : कृत्-प्रत्यय धातु ल्युट् अनम् (नपुं०) घन् = अः (पुं०) क्तिन-तिः-(स्त्री०)" भू> भवनम् भावः, प्रभावः भूतिः कृ> करणम् कारः, उपकारः कृतिः यज्> यजनम् यागः इष्टिः भुज्> भोजनम् / भुक्तिः 'ल्युटु' प्रत्यय जोड़ते समय स्मरणीय नियम-'अनीयर्' प्रत्यय के नियम यहाँ लगते हैं। अतः 'अनीय' के स्थान पर 'अन' जोड़ने से 'ल्युट' प्रत्ययान्त शब्द बन जाते हैं। जैसे-गम् > गमनम्, पठ् > पठनम्, पा > पानम्, रुद्> रोदनम्, गै> गानम्, ध्य>ध्यानम्, लिख्>लेखनम्, दृश् > दर्शनम्, रम् रमनम् ( रमना), करणम्, ग्रहणम्, स्मरणम्, भक्षणम्, शानम् (शा-जानना ) / 'घ' प्रत्यय जोड़ते समय स्मरणीय नियम-(१) धातु के अन्तिम स्वर (इ, उ, पा) को वृद्धि तथा उपधा के अ, इ, उ, ऋ को गुण / जैसे-- (घ) न (अ)- यज्ञः, प्रश्नः यत्नः / (ङ) कि. (इ)-प्रधिः, जलधिः / (च) क्वि (लोप)-सम्पद, प्रतिपद्, परिषद् / (क) युच्' (अन)-धारणा, वेदना, वन्दना / (ज) अ-चिकीर्षा, पिपासा, बुभुक्षा। (झ) घ" (अ)आकरः, आपणः (ब) खल' (अ)-सुकरः (सुखेन कर्तुं योग्यः ), दुष्करः, दुर्लभः। 1. (क) 'स्युट्' प्रत्ययान्त शब्द नपुं० होते हैं / इनके रूप 'शाम' शब्द की तरह नलेंगे। (ख) करण और अधिकरण अर्थ में भी 'ल्युट्' प्रत्यय होता है। जैसे यानम् (जिससे जाते हैं, सवारी), स्थानम् (जहाँ बैठते हैं)।। (ग) 'पजन्त' शब्द पुं० होते हैं / इनके रूप 'राम' की तरह चलते है। (घ) इन प्रत्ययों के साथ कर्म में अथवा कर्ता में षष्ठी होती है। जैसे भोजनस्य पाकः त्यागो वा / शिशोः शयनम् / (ङ) 'क्तिन्' प्रत्ययान्त शब्द स्त्री होते हैं। इनके रूप 'मति' की तरह चलते हैं। 1. यजयाचयतविच्छाच्छरक्षो न / अ० 3. 3.60. 2. उपसर्ग घोः किः / कर्मण्यधिकरणे च / अ० 3.3.62-63. 3. सम्पदादिभ्यः क्विप् / क्तिनपीष्यते (वा०)। 4. ण्याराधन्थो युच् / अ० 3.3.107; घट्टिवन्दिविदिभ्यश्चेति वाच्यम् (वा०)। 8. अ०३.३.१०२-१०३. 6. अ० 3.3.118-116. 7. ईषदुःसुषु कृच्छार्थेषु खल / अ० 3.3 126. 8. करणाधिकरणयोश्च / अ० 3.3.117. *9. पतॄकर्मणोः कृति / उभयप्राप्ती कर्मणि / अ० 2.3.65-66. चतुर्थ अध्याय तद्धित-प्रत्यय ( Secondary-Suffixes ) 1. प्रातिपदिकों (संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण आदि) में जिन प्रत्ययों को जोड़कर पिसी विशेष अर्थ को प्रकट किया जाता है उन्हें 'तद्धित' (तत् + हितगतेभ्यः प्रयोगेभ्यः हिता इति तद्धिता-जो विभिन्न प्रयोगों के काम आवें) प्रत्यय कहते हैं। इनके जुड़ने पर बनने वाले संज्ञादि शब्द ( सुवन्त ) तद्धितान्त कहलाते हैं। 2. तद्धितान्त शब्द प्रातिपदिक से बनकर पुनः प्रातिपदिक रूप ही होते हैं, अतः इनसे अवयवार्थ के अतिरिक्त एक विशिष्ट समुदायार्थ की भी प्रतीती होती है। 3. 'कृत्' और 'तद्धित' में अन्तर --यद्यपि कृत्' और 'तद्धित' प्रत्ययों से मंज्ञादि 'सुबन्त' शब्द ही प्रायः बनते हैं और उनमें 'सुप' आदि विभक्तियाँ जुड़ती हैं, परन्तु 'कर' प्रत्यय केवल धातुओं से और तद्धित' प्रत्यय केवल प्रातिपदिकों से होते हैं।

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