Book Title: Sanskrit Praveshika
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Tara Book Agency
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________________ संस्कृत-प्रवेशिका [4 : तद्धित-प्रत्यय धा, मानव, वति ] 1: व्याकरण [ 57 सब्दों से थमु ( थम्)। जैसे-इदम्, एतद् >इत्थम् ( अनेन एतेन वा प्रकारेण इस प्रकार से ), किम् >कथम् ( केन प्रकारेण ) / (7) विभिन्नार्थक विविध प्रत्यय-धा, मात्रच्,बति, च्चि, तीय आदि / (1) प्रकारार्थक 'धा-संख्यावाची शब्दों से। जैसे-एक >एकधा (एक प्रकार से), विधा, विधा, चतुर्धा, पञ्चधा, शतधा, सहस्रधा, बहुधा (प्रायः, अनेक बार)। (2) प्रमाणार्थक 'मात्रच्' (मात्र)-नाप, तौल आदि अर्थों में। जैसे-मुष्टिनात्रम् (मुट्ठीभर ), हस्तमात्रम्, कटिमात्रम्, जानुमात्रम् / (1) सादृध्यार्थक 'वति' (वत् --क्षत्रियवत् (क्षत्रिय के समान ), ब्राह्मणवत् / (4) अभूततद्भावार्थक 'च्चि' (ई)-किसी वस्तु को रस प्रकार का बना देना या उसका वैसा हो जाना, जैसी वह पूर्व में न हो। जैसे-शुक्ल +यि+करोति - शुक्लीकरोति ( अशुक्ल शुक्लरूपेण संपद्यमानं करोति - जो शुक्ल नहीं है वह उसे शुक्ल बनाता है), कृष्णीकरोति, उत्तरलीकरोति (चञ्चल बनाता है), ब्रह्मीस्वति, अग्नीभवति, मुखरीकरोति, मूकीकरोति / (5) पूरणार्थक 'तीय', 'थुक्' (य), मट् (म)-किसी संख्या को पूरा करने वाला। जैसे-द्वितीयः, तृतीयः, तुर्थः पञ्चमः षष्ठः (विशेष के लिए देखें, पृ. 112 टि.)। (6) संख्या-समूह वाचक तयप्' (तय), 'अयच्' (अय), 'डट्' (अ)-संख्या सम्बन्धी समूह वर्य में-द्वि+अय-द्वयम्, द्वि+तय-द्वितयम् (द्वयम् - दो का समूह), त्रितयम् (त्रयम् ), चतुर+चतुष्टयम् / एकादशन् + डट् एकादशः। (7) प्रवचनार्थक छ। ईय )'-पुस्तक नादि के रचयिता के अर्थ में रचयिता के बाद / जैसेपाणिनि >पाणिनीयम् ( पाणिनिना प्रोक्तम् - पणिनि से प्रवचन किया गया व्याकरण ), पाणिनीया (अष्टाध्यायी), वाल्मीकीयम् (रामायण), कालिदासीयम् / (8) स्वार्षिक 'कन्' (क), अण् (अ)-रया में प्रत्यय होने से अर्थ में .द्धि नहीं होती। जैसे-अश्व + कन् (क) = अश्वकः ( अश्व एव / 'अश्व' से सादृश्य अर्थ में 'कन्' प्रत्यय होने पर भी 'अश्वकः' बनेगा, जिसका अर्थ होगा विश्व इव प्रतिकृतिः' ) / बन्धु + अण् - बान्धवः (बन्धुरेव ), देवता + अण् - देवतः 1. संख्याया विधार्थ धा / अ०५.३.४२. 2. प्रमाणे य० / अ० 5.2.37. 3. तेन तुल्यं क्रिया चेद्वति / तत्र तस्येव / अ०५.१.११५-११६. 4. कृभ्वस्तियोगे संपद्यकर्तरि च्चिः / अ०५. 4. 50. 5. नान्तादसंख्यादेमंट् / षट्-कति कतिपय-चतुरां थुक / द्वेस्तीयः / श्रेः सम्प्रसारणं च। अ०५.२.४६,५१,५४-५५. 6. संख्याया अवयवे तयप् / द्वित्रिभ्यां तयस्याऽयज्वा / तस्य पूरणे डट् / अ०५. 2. 42, 43, 48. 7. तेन प्रोक्तम् / अ०४. 3. 101 8. सर्व प्रातिपदिकेभ्यः स्वाय कन् (बा.)। प्रज्ञादिभ्यश्च / अ०५-४. 36. (देवता एव), प्रज्ञ + अण् = प्राज्ञः (प्रज्ञ एव)।(१) संजातार्थक 'इतन्' (इत् )-'इसके हो गये हैं। (बस्य संजातम् )- जो पहले नहीं थे वे अब इसके हो गये हैं। जैसे-तारका + इतच - तारकितम् (तारकित नभः - तरकाः संजाता अस्य-तारे इसके हो गये हैं अर्थात् जिसमें तारे निकल आये हैं ऐसा आकाशतारों से युक्त आकाश ), पण्डा+इतन् - पण्डितः ( पण्डा सदसदविवेकिनी बुद्धिः संजाला अस्य-जिसकी अच्छे-खराब को जानने की बुद्धि हो गई है-सदसदविवेक से युक्त)। पुष्णितः, रोमाञ्चितः, कुसुमितः, अङ्कुरितः, दुःखितः (दुखितम्, दुःखिता), पिपासा पिपासितः, क्षुधा>शुधितः / (6) 'अण' का अपत्य से भिन्न अर्थों में प्रयोग (क) समूहार्थ --काकानां समूहः - काकम् / (ख) देवतार्थ-विष्णुः देवता अस्य -वैष्णवः / (ग) सम्बन्धार्थ -देवस्य अयम् - देवः / (घ) रक्तार्थ -कषायेण रक्तं वस्त्रं काषायम् / (ङ) जातार्थ -मिथिलाया जाताः मैथिलः / (च) विकारार्थ'-गोधूमस्य विकारः गोधूमः; हैमः / (छ) कालार्थ'-पुष्य+ अण् - पौषः ( पोपी पूर्णमासी अस्मिन् इति ); चैत्रः (चित्रया युक्तः मासः)। (ज) भाव कर्म अर्थ -भुनेर्भावः कर्म वा मौनम्, शुर्भावः कर्म वा शौचम् ( स्वच्छता ) / (झ) आगतार्थ1-विदर्भादागतः वैदर्भः / (ज) प्रोक्तार्थ11मनु> मानवः, ऋषि> आर्षः (ऋषि-प्रणीत)। (ट) निवासार्थ -मुघ्नो निवासोऽस्य स्रौघ्नः / (8) अधीतार्थ18-व्याकरणम् अधीते वेद वा वैयाकरणः / 1. तदस्य संजातं तारकादिभ्य इतच् / अ५. 2. 36. 2. तस्य समूहः / म०४. 2. 37 / 3. सास्य देवता / अ०४.२.२४ / 4. तस्येदम् / अ०४. 3. 120 / 5. तेन रक्तं रागात् / अ०४. 2.1 / 6. तत्र जातः / अ० 4. 3. 25 / 7. तस्य विकारः / अ०४. 3. 134 / 8. नक्षत्रेण युक्तः कालः / अ० 4.2. 3; सास्मिन् पौर्णमासीति / अ०४.१.२१॥ 9. इगन्नाच्च लघुपूर्वात् / अ०५.१.१३१1 10. तत आगतः / अ० 4.3.74 / 11. तेन प्रोक्तम् / अ० 4. 3. 101 / 12. सोऽस्य निवासः / अ०४.३..5६। 13. तदधीते तद्वेद / अ०४. 2. 56 /

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