Book Title: Sanskrit Praveshika
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Tara Book Agency

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Page 47
________________ षष्ठी, सप्तमी विभक्ति 80] 1. व्याकरण तुल्य संस्कृत-प्रवेशिका [7 : कारक और विभक्ति हेतु' शब्द का प्रयोग न होने पर 'हतो' सूत्र से तृतीया होगी-'अध्ययनेन वसति'। निमित्तार्थक शब्द के साथ यदि सर्वनाम का भी प्रयोग हो तो प्रायः सभी विभक्तियों का प्रयोग होता है-को हेतुः, कं हेतुम्, केन हेतुना, कस्मै हेतवे, कस्मात् हेतोः, कस्य हेतोः, कस्मिन् हेती (किस हेतु से)। इसी प्रकार--- किं निमित्तम, कि प्रयोजनम् (कौन सा प्रयोजन); ज्ञानेन निमित्तेन, ज्ञानाय निमित्ताय, ज्ञानात् निमितात, ज्ञानस्य निमित्तस्य, ज्ञाने निमित्ते हरिः सेव्यः (शान के लिए हरि सेव्य हैं)। असर्वनाम का प्रयोग होने पर प्रथमा और द्वितीया नहीं होती हैं / 44. कर्तृकर्मणोः कृति-'कृत्' (तच, घ, युट्, क्तिन्, ण्वुल आदि कृत् ) [प्रत्ययान्त शब्दों के योग] में कर्ता और कर्म में षष्ठी होती है। सामान्य नियमानुसार 'अनुक्त' कर्ता में तृतीया, अनुक्त कर्म में द्वितीया तथा उक्त कर्ता एवं कर्म में प्रथमा होती हैं। यह इस नियम का अपवाद है। अर्थात् कृत् प्रत्ययान्त (गतिः भोजनम् आदि) पदों का प्रयोग होने पर उनके कर्ता और कर्म में षष्ठी होती है (तिडन्त के कर्ता और कर्म में नहीं)। जैसे--कृष्णस्य कृतिः (क+क्तिन् कृष्णकर्तृक कृति-कृष्ण की कृति); वेदस्य अध्येता (अधि+ ईङ् + तृच् वेद का अध्ययनकर्ता) / यहाँ प्रथम वाक्य में 'कृति' का कर्ता 'कृष्ण' तथा द्वितीय वाक्य में 'अध्येता' का कर्म 'वेद' षष्ठी विभक्ति में है। अन्य उदाहरण-जगतः कर्ता (कृ + तृच्) कृष्णः (जगत् का कर्ता कृष्ण है); बालकानां रोदनम् (रुद + ल्युट् बालकों का रोना ); विषस्य भोजनम् (भुज् + ल्युट्, विष का भोजन ); राक्षसानो पातः (हन् + पञ्; राक्षसों का विनाश); राज्यस्य प्राप्तिः (प्राप् + क्तिन्: राज्य की प्राप्ति); पुस्तकस्य पाठकः (पठ् + ण्वुल; पुस्तक का पाठक); या सृष्टिः स्रष्टुराधा (सृज + क्तिन्; जो ब्रह्मा की प्रथम सृष्टि है)। 45. उभयप्राप्ती कर्मणि-[एक ही कृत के योग में ] उभयप्राप्ति (कर्ता और कर्म दोनों की उपस्थिति) होने पर कर्म में षष्ठी हो [कर्ता में नहीं] / जैसेआश्चर्यो गवां दोहः (दुह + धम्) अगोपेन (अगोपकर्तृक गोकर्मक जो दोहन वह अद्भुत है - आश्चर्य है, अगोप से गायों का दुहा जाना); ग्रन्थानां पाठः अशिक्षितेन (अशिक्षित ने ग्रन्थों का पाठ किया)। यदि कर्ता और कर्म भिन्न-भिन्न 'कृत्' से सम्बन्धित होंगे तो इस सूत्र की गति नहीं होगी। जैसे-ओदनस्य पाकः ब्राह्मणानां च प्रादुर्भावः ( अन्न का पाक और ब्राह्मणों का प्रादुर्भाव) / 46. तुल्यार्थैरतुलोपमाभ्यां तृतीयान्यतरस्याम्-'तुला' और 'उपमा' को छोड़कर तुल्यार्थक (तुल्य, सदृश, सम आदि) शब्दों से तृतीया विकल्प (विकल्पाभाव। में षष्ठी) से होती है / तुला और उपमा के साथ षष्ठी ही होती है, तृतीया नहीं। जैसे -कृष्णस्य उपमा तुला वा नास्ति ( कृष्ण की तुलना नहीं है); कृष्णस्य कृष्णेन / 1.निमिजपाययौ सर्वात प्रामदर्शनम्।प्रामगृहणार असर्वनाम्ना दिली जस्त:/ वा तुल्यः सदृशः समो वा ( कृष्ण के सदृग); नायं मया भम वा पराक्रम विमति (यह मेरे बराबर पराक्रम नहीं रखता)। 47. षष्ठी चानादरे-अनादर [ के अतिशय ] मैं [ सप्तमी के साथ ] षष्ठी भी हो [ यदि भावलक्षण हो]। इस सूत्र में 'यस्य च भावेन भावलक्षणम्' सूत्र की अनुवृत्ति है तथा चकार से सप्तमी की अनुवृत्ति है। इस प्रकार इस सूत्र का अर्थ हुमा 'जिसके भाव ( क्रिया) से अनादर (तिरस्कारातिशय) विषयक भावान्तर (क्रियान्तर ) लक्षित हो उससे षष्ठी तथा सप्तमी हो। अनादर का अर्थ म होने पर सप्तमी ही होगी, षष्ठी नहीं / जैसे-रुदति पुत्र स्वतः वा पुत्रस्य प्रावामीत् (रोते हुए पुत्र का तिरस्कार करके वह सन्यासी हो गया; यहाँ 'रुदतः' किया शब्द से 'प्राबजीत' रूप क्रियान्तर तथा बच्चों की परवाह न करके उनका अत्यधिक तिरस्कार भी लक्षित हो रहा है); निवारयत्यपि पितरि निवारयतोऽपि पितुः देवदत्तः अध्यपनं परित्यक्तवान् (पिता के रोकने पर भी देवदत्त ने पढ़ना छोड़ दिया)। सप्तमी विभक्ति (Seventh case-ending) 48. आधारोऽधिकरणम्-[कर्ता या कर्म से सम्बन्धित क्रिया का आधार अधिकरण होता है / अधिकरण तीन प्रकार का होता है (क) औपश्लेषिक आधार ( Location of contact )-जिसके साथ आधेय का संयोग (भौतिक या शारीरिक सम्बन्ध हो। जैसे-कटे आस्ते (पटाईपर बैठा है); स्थाल्यां पचति (बटलोई में पकाता है)। (ख) बैषयिक आधार (Location of object)-जिसके साथ आधेय का बौद्धिक सम्बन्ध हो / जैसेमोक्षे इच्छाऽस्ति (मोक्ष में इच्छा है); प्रातःकाले पठति (सुबह पढ़ता है)। (ग) अभिव्यापक आवार-(Location of pervasion)-जिसके साथ भाषेय का व्याप्य-व्यापक (आधार के सभी अवयवों को व्याप्त करके आधेय वस्तु का रहना) सम्बन्ध हो। जैसे-सिलेषु तलम् [ तिलों में तेल है ]; सर्वस्मिन्नास्मास्ति [ सब में आत्मा है]। 46. सप्तम्यधिकरणे च-अधिकरण में सप्तमी होती है [सूत्र में प्रयुक्त 'च' का अर्थ ४१वें सूत्र में स्पष्ट किया गया है। जैसे-पृथिव्या क्रीडति ( जमीन पर खेलता है); भानौ तापः ( सूर्य में गर्मी है); पुष्पे गन्धः (फूल में गन्ध है)। 50. निमित्ताकर्मयोगे [बा०]-कर्मयोग ( कर्म-सम्बन्ध ) में निमित्त [ फल ] से सप्तमी होती है; अर्थात् जिस फल की प्राप्ति के लिए कोई क्रिया की जाती है, वह फल यदि उस क्रिया के कर्म से सम्बद्ध (समवेत) हो तो उस फल / (निमित्त) में सप्तमी होती है। जैसे-चर्मणि द्वीपिनं हन्ति (चमड़े के लिए हाथी

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