Book Title: Sanskrit Praveshika
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Tara Book Agency

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Page 39
________________ प्रथमा विभक्ति] 1 / व्याकरण सप्तम अध्याय कारक और विभक्ति ( Cases and Case endings) जो क्रिया का साधक होता है वह कारक कहलाता है (क्रिया-जनकत्वं हि कारकत्वम् / येन विना क्रियानिर्वाहो न भवति तत् कारकम् ) / कारक छह है' (1) कत्त-कारक-क्रिया का प्रधान सम्पादक अर्थात् जो क्रिया के करने में स्वतन्त्र हो और धात्वर्थ व्यापार का आश्रय हो। (2) कर्म-कारकक्रिया के फल का आश्रय ( कर्म ) अर्थात् क्रिया के द्वारा कर्त्ता जिसे विशेषरूप से प्राप्त करना चाहे। (3) करण-कारक-क्रिया के सम्पादन में प्रमुख सहायक (साधकतम)। (4) सम्प्रदान कारक-क्रिया का उद्देश्य अर्थात् जिसके लिए क्रिया की जाए या कुछ दिया जाए। (5) अपादान-कारक-क्रिया का विश्लेष अर्थात् जिससे कोई वस्तु अलग हो। (6) अधिकरण-कारक-क्रिया का आधार अर्थात् कर्ता और कर्म में रहने वाली क्रिया जिस स्थान पर हो। कारकों का विभक्तियों से सम्बन्ध-कारकों का विभक्तियों से सम्बन्ध है क्योंकि "विभक्ति' शब्द का अर्थ है-जिसके द्वारा संख्या और कारक का बोध हो ( संपाकरकबोधयित्री विभक्तिः)। विभक्तिपोशात हैं-प्रथमा, द्वितीया, तृतीया चतुर्थी, पञ्चमी, षष्ठी और सप्तमी। जैसे- देवदत्त का पुत्र गाँव से आकर वाराणसी में ब्राह्मणों के लिए अपने दोनों हाथों से धन देता है - देवदत्तस्प पुत्रः ग्रामादागत्य वाराणस्या ब्राह्मणेभ्यः स्वकराभ्यां धनं ददाति / यहाँ 'पुत्रः' में प्रथमा, 'धनम्' में द्वितीया, 'कराभ्याम्' में तृतीया, 'ब्राह्मणेभ्यः' में चतुर्थी, 'ग्रामात' में पञ्चमी, 'देवदत्तस्य' में षष्ठी और वाराणस्वाम्' में सप्तमी विभक्ति है। नतिअनुमा सामान्यतः कर्ती में तृतीया, कर्म में द्वितीया, करण में तृतीया, सम्प्रदान में चतुर्थी, अपादान में पञ्चमी और अधिकरण में सप्तमी विभक्ति होती है। षष्ठी' विभक्ति को कारक-विभक्ति नहीं माना जाता है क्योंकि उसका क्रिया से सम्बन्ध नहीं है। कर्ता, कर्म और करण का क्रिया से सीधा सम्बन्ध है तथा शेष का का मादि के द्वारा परम्परया / कृदन्त क्रिया का प्रयोग होने पर कर्ता या कर्म में षष्ठी विभक्ति होती है। व्यवहार में प्रथमा विभक्ति कर्तृवाच्य के कर्ता में और कर्मवाच्य के कर्म में होती है। वस्तुतः प्रथमा विभक्ति कर्तृकारक में न होकर प्राति-- पदिकार्थ में होती है क्योंकि कर्तृवाच्य में कर्ता तो क्रिया के द्वारा ही उक्त हो जाता। है फिर प्रथमा विभक्ति के द्वारा कर्तृकारक के पुनः कथन का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता है। यही स्थिति कर्मवाच्य में कर्म की भी है। अतः पाणिनि ने कहीं। भी कर्तृकारक में प्रथमा का उल्लेख नहीं किया है। दोनों में अन्तर-बाह्य जगत में जो क्रिया होती है उसे निष्पन्न करने / 1. शर्मा मार्ग घ करणं सम्प्रदान तथैव च / पापानाधिकारणे इत्याहुः कारकाणि षट् / / समासचक्र, पृ० 13. मार विधीयते न्यादितव्यादितदिताः। समासो वा भवेद यत्र स उन: प्रभमा ततः वाले पदार्थ कारक कहे जाते हैं। विभक्तियां भिन्न-भिन्न कारकों को प्रकट करती हैं और उनका सम्बन्ध बाह्य जगत् के पदार्थों से न होकर शब्दरूपों से है। द्वितीयादि विभक्तियां कारकों के अतिरिक्त उपपदों के साथ भी प्रयुक्त होती हैं। अतः उन्हें दो भागों में विभक्त किया जा सकता है : (1) कारक-विभक्ति-क्रिया को उद्देश्य करके प्रयुक्त होने वाली विभक्ति को कारक-विभक्ति कहते हैं (क्रियामुद्दिश्य विधीयमाना विभक्तिः कारकविभक्तिः)। (2) उपपद-विभक्ति--अव्यय आदि पदों को उद्देश्य करके प्रयुक्त होने वाली विभक्ति को उपपद-विभक्ति कहते हैं (पदमुद्दिश्य विधीयमाना विभक्तिः उपपदविभक्तिः ) / जहाँ कारक-विभक्ति और उपपद-विभक्ति दोनों की एक साथ प्राप्ति होती है वहाँ कारक-विभक्ति प्रधान होती है (उपपदविभक्तः कारकविभक्तिबलीयसी)। जैसे—(क) 'मुनित्रयं नमस्कृत्य' (मुनित्रय को नमस्कार करके; यहाँ 'मुनित्रय' में 'नमः' अव्यय पद के योग से चतुर्थी विभक्ति की और नमस्करणरूप प्रिया का कर्म होने से द्वितीया विभक्ति की प्राप्ति होती है परन्तु कारक-विभक्ति के प्रधान होने से 'मुनित्रय' में द्वितीया हई। (ख) 'नमस्करोति देवान्' (देवताओं को नमस्कार करता है)। विभक्तियों के प्रयोग-सम्बन्धी प्रमुख नियम इस प्रकार हैं प्रथमा विभक्ति ( First case-ending) 1. प्रातिपदिकार्थलिङ्गपरिमाणवचनमात्रे प्रथमा-प्रातिपदिकार्थ में, लिङ्गमात्र [ के आधिक्य ] में, परिमाणमात्र में और वचनमात्र में प्रथमा विभक्ति होती है। जैसे (क) प्रातिपदिकार्थमात्र में प्रथमा- शब्द का उच्चारण करने पर जिस अर्थ की नियत-प्रतीति हो उसे प्रातिपदिक ( Base or crude form) का अर्थ कहते है(नियतोपस्थितिकः प्रातिपदिकार्थ); अर्थात् जब किसी शब्द से उसके अर्थमात्र ना ज्ञान कराना अभीष्ट हो तो वहां प्रातिपदिकार्थमात्र में प्रथमा विभक्ति होती / संस्कृत वैयाकरणों के अनुसार किसी शब्द में जब तक 'सुप' वा 'तिह' प्रत्यय गोड़ा जाये तब तक वह अर्थहीन सा होता है। अतः जब किसी शब्द के केवल म का बोध कराना हो तो उसे प्रथमा विभक्ति के द्वारा प्रकट करते हैं / अव्ययों में vीसी कारण प्रथमा विभक्ति का प्रयोग किया जाता है / जैसे-उच्चः ( ऊँचा), जानः (नीचा), श्रीः (लक्ष्मी), कृष्णः (वासुदेव), ज्ञानम्, पुस्तकम्, रामायणम्, कामप्रकाशः, वृक्षः। पचपि प्रातिपदिक से जाति एवं व्यक्ति के अतिरिक्त लिङ्ग, संख्या और कारक .जीबोध होता है परन्तु यहाँ प्रातिपदिक से लिङ्ग, संख्या आदि का ग्रहण

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