Book Title: Sanskrit Praveshika
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Tara Book Agency

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Page 43
________________ 72] संस्कृत-प्रवेशिका [7: कारक और विभक्ति सुखम् (हरि के विना सुख नहीं); त्वामन्तरेण कोऽन्यः प्रतिकतुं समर्थः ( तुम्हारे विना दूसरा कौन बदला लेने में समर्थ है)। 12. कालाधवनोरत्यन्तसंयोगे--अत्यन्त-संयोग (निरन्तरता अविच्छिन्नता) , होने पर कालवाचक और मार्ग (अध्व) वाचक [ शब्दों ] में [द्वितीया होती है। जैसे-मासमधीते (निरन्तर महीने भर पढ़ता है); क्रोशं कुटिला मदी (एक कोस तक नदी टेढ़ी है); क्रोशं गिरिः (एक कोस लम्बा पहाड़ है); क्रोशमधीते (कोस भर चलते हुए पढ़ता है); मासं कल्याणी ( महीना भर कल्याणी है)। अत्यन्त संयोग न होने पर द्वितीया नहीं होगी-मासस्य द्विरधीते (महीने में दो बार पढ़ता है); क्रोशस्य एकदेशे पर्वतः (कोस के एक भाग में पर्वत है)। विशेष के लिए देखिए-- 'अपवर्ग तृतीया'। aatar farafii (Third case-ending ) 13. साधकतमं करणम्-[कर्ता को क्रिया की सिद्धि में ] साधकतम( सबसे अधिक सहायक या उपकारक ) करण कारक कहलाता है। करण कारक में अग्रिम सूत्र 'कर्तृकरणयोस्तृतीया' से तृतीया विभक्ति होती है। जैसे -कुठारेण काष्ठ छिनत्ति (कुठार से लकड़ी काटता है। यहाँ काष्ठ-छेदन क्रिया में कुठार सर्वाधिक सहायक है; अतः कुठार में तृतीया विभक्ति हुई)। 14. कर्तृकरणयोस्तृतीयो-[ अनुक्त ] कर्ता ( कर्मवाच्य और भाववाच्य का कर्ता) तथा करण में तृतीया विभक्ति होती है। जैसे--रामेण बाणेन हतो बाली (राम के द्वारा बाण से बाली मारा गया; यहाँ 'हन्' धातु से कर्मवाच्य में 'क्त' प्रत्यय जोड़ने पर 'हतः' बना है। कर्मवाच्य में 'क्त' होने से यहां 'क्त' से कर्म 'उक्त' है, तथा कर्ता और करण अनुक्त हैं); मया गम्यते (मरे द्वारा जाया जाता है; यहाँ भाववाच्य की क्रिया का प्रयोग है। अतः कर्ता अनुक्त है); अहं जलेन मुखं अक्षालयामि (मैं जल से मुख धोता हूँ; इस कर्तृवाच्य के प्रयोग में क्रिया से कर्ता 'उक्त' है परन्तु करण अनुक्त' है)। 15. अपवर्ग तृतीया-अपवर्ग (फलप्राप्ति या कार्यसिद्धि) में तृतीया होती है। यह 'कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे' का विशेष विधान है। अर्थात कालवाचक और मार्गवाचक शब्दों में तृतीया होती है यदि वहाँ अत्यन्तसंयोग के साथ फलप्राप्ति भी हो। जैसे-अह्रा क्रोशेन वा पुस्तकम् अधीतवान् ( एक दिन में या एक कोस में पुस्तक पढ़ ली; अर्थात् पूरे दिन भर अथवा पूरे एक कोस चलते-चलते पुस्तक को, पढ़ लिया तथा पढ़ने का फल जो ज्ञान है वह भी प्राप्त कर लिया ); पञ्चभिः दिन। नीरोगो जातः (पांच दिनों में नीरोग हो गया ); मासेन योजनेन वा व्याकरणम तृतीया विभक्ति ] 1: व्याकरण धीतम् (एक महीने में या एक योजन में व्याकरण पढ़ ली); अहा क्रोशेन वा कथा समाप्तवान् (एक दिन में या एक कोस में कथा पूरी पढ़ ली)। फलप्राप्ति न होने पर द्वितीया ही होगी-'मासमधीतो नायातः' ( महीने भर पड़ा. परन्तु ज्ञान प्राप्त नहीं हुभा ) / 16. सहयुक्तेऽप्रधाने--सह (सह, साकं, समं, सार्धम् आदि सहार्थक शब्दों) का योग होने पर अप्रधान (जो प्रधान = कर्ता का साथ देता है) में तृतीया होती है। जैसे-पुत्रेण सह आगतः पिता (पुत्र के साथ पिता जी आए; यहाँ पिता प्रधान कर्ता है और पुत्र अप्रधान कर्ता क्योंकि पिता का ही क्रिया के साथ मुख्य सम्बन्ध है); पित्रा सह आगतः पुत्रः (पिता के साथ पुत्र आया; इस वाक्य में पुत्र प्रधान का है और पिता अप्रधान); गुरुणा साकं साध समं सह वा छात्रा: गच्छन्ति ( गुरु के साथ छात्र जाते हैं)। 17. पृथग्विनानानाभिस्तृतीयाऽन्यतरस्याम्-पृथक् ( अलग ), विना और नाना ( विना) इन शब्दों के योग से तृतीया विकल्प (= अन्यतर-द्वितीया और पञ्चमी ) से होती है। जैसे-रामेण रामात् रामं वा बिना दशरथो नाजीवत (राम के बिना दशरथ नहीं जिये); उर्मिला चतुर्दशवर्षाणि लक्ष्मणं लक्ष्मणेन लक्ष्मणाद वा पृथक् निवसति स्म (उर्मिला चौदह वर्षों तक लक्ष्मण से अलग रही); नाना नारी निष्फला लोकयात्रा (नारी के बिना संसारयात्रा निष्फल है); प्रकृतेः पृथक् (प्रकृति से भिन्न ),वियां बिना सुखं नास्ति / 18. येनाङ्गविकार:--जिससे अङ्गी' ('अवयवधर्म का समुदाय में आरोप होता है' इस नियम से सूत्र में अङ्ग शब्द अङ्गीवाचक है / 'अङ्गानि अस्य सन्ति' = इसके अङ्ग हैं। इस अर्थ में अङ्ग शब्द से मत्वर्थीय 'अच्' प्रत्यय हुआ है) का विकार द्योतित हो, उससे तृतीया हो; अर्थात् जिस अङ्ग के विकृत होने से अङ्गी का विकार लक्षित होता है. उस विकृत अङ्गवाचक शब्द से तृतीया होती है। जैसे—अक्षणा काणः ( एक आँख से काना ); कर्णन बधिरः ( कान से बहिरा); उदरेण तुन्दिलः (पेट से तोंदू): पृष्ठेन कूब्जः (पीठ से कूबड़ा); पादेन खजः (पैर से लंगड़ा); शिरसा खल्वाटः (शिर से गंजा)। जहाँ अङ्गी में विकार न मालूम पड़े बही नृतीया नहीं होगी-अक्षि काणम् अस्य ( इसकी आँख कानी है)। 16. इत्थंभूत लक्षणे-इत्थंभूतलक्षण ( अयं प्रकारः इत्थं, तं भूतः = प्राप्तः इत्थंशुतः, तस्य लक्षणे = इत्यंभूतलक्षणे / इत्थं का अर्थ है-अयं प्रकारः 'यह प्रकार'; अर्थात् इसका सामान्य अर्थ है-विशेषण / भूतः 'भू + क्त' का अर्थ है-'प्राप्त'। लक्षण का अर्थ है-'ज्ञापित') में तृतीया होती है; अर्थात् जब किसी चिह्नविशेष रो किसी वस्तुविशेष की पहचान होती है तो वहाँ उस चिह्नविशेष में तृतीया होती

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