________________ . संस्कृत-प्रवेशिका [4 : तद्धित-प्रत्यय (1) शब्द के अन्तिम स्वर का लोप होता है। जैसे--- लघु>लघु / (2) शब्द के अन्तिम व्यजन का तथा उसके पूर्ववर्ती स्वर का लोप होता है। जैसे महत >मह / (3) अजन से प्रारम्भ होने वाले 'मृदु' आदि शब्दों की 'ऋ' को 'र' होता है / (4) 'गुरु' को 'गर' आदेश होता है। (5) 'स्थूल, दूर, युवन् ह्रस्व, क्षिप्र, क्षुद्र' इनमें अन्तःस्थितः 'य वर्ल' अंश का लोप होता है तथा तत्पूर्ववर्ती स्वर को गुण / (6) अन्य आदेश उदाहरणों में देखें / / (3) भावार्थक ( Abstract nouns )-त्व, तल, इमनिच भाववाचक संज्ञा (हिन्दी में जिसे 'पन' जोड़कर और अंग्रेजी में 'Ness' जोड़कर प्रकट करते हैं ) बनाने के लिए 'स्व', तल' (ता) और 'इमनिच् . (इमन ) प्रत्यय होते हैं। ' (1) त्व' प्रत्ययान्त शब्द सदा नपुं० होते हैं और उनके 1. भावार्थक कुछ अन्य प्रत्यय-(क) व्यज (य)-गुणयाचक और ब्राह्मण आदि शब्दों से 'व्यम्' प्रत्यय होता है / ये नपुं० ही होते हैं / इसके जुड़ने पर अंतिम 'अ' स्वर का लोप होता है तथा आदि स्वर को वृद्धि होती है। जैसेमधुर ध्यन् (य)-माधुर्यम्, चतुर>चातुर्यम्, शीत > शैत्यम्, क्रूर>क्रौर्यम्, पणित>पाण्डित्यम्, निपुण>नैपुण्यम्, चपल > चापल्यम्, विदग्ध वैदग्ध्यम्, विद्वस् >वैदुष्यम्, शूर> शौर्यम्, सुन्दर सौन्दर्यम्, ब्राह्मण>प्राह्मण्यम्, धीर> धैर्यम्, सुख>सौख्यम्, कवि> काव्यम्, शुक्ल > शौक्ल्यम् / (ख) य-यह सखि शब्द से भाव और कर्म अर्थ में होता है। जैसे-सखि सख्यम् ( सख्युः कर्म भावो वा-मित्र का कार्य और भाव मित्रता)। (ग) थक् (य)भाव और कर्म अर्थ में पति शब्द जिनके अन्त में हो उनसे तथा पुरोहित आदि शब्दों से। जैसे-सेनापति सैनापत्यम्, पुरोहित पौरोहित्यम्, (पुरोहित का काम या भाव)।(घ) ढक (एय)-कपि और ज्ञाति शब्दों से भाव और कर्म अर्थ में कपिकापेयम्, ज्ञाति जातेयम् / (क)अण (अ)-युवन् >यौवनम्, विहायन>हायनम्, स्थविर स्थाविरम्, कुशल> कौशलम्, मुनि >मौनम्, सुहृद् सौहार्दम्, पटु>पाटवम् / 1. देखें, सिद्धान्तकौमुदी 'तद्धितेषु प्रागिवीय' प्रकरण पृ० 366-368. 2. तस्य भावस्त्वतलौ / पृथ्वादिभ्य इमनिज्वा / अ० 5.1.116, 122. विशेष के लिए देखें, सिद्धान्तकौमुदी 'तद्धितेषु भावकर्थािः ' पृ० 344-346. 3. वर्णदृढादिभ्यः व्यञ् च / गुणवचनब्राह्मणादिभ्यः कर्मणि च / 105.1.123124 / 4. सख्युर्यः / अ०५.१.१२६. 6. पत्यन्तपुरोहितादिभ्यो यक् / अ० 5.1.128. 6. पिज्ञात्योर्डक् ।अ०५.१.१२७. 7. हायनान्तयुवादिभ्योऽण् / इगन्ताच्च लघुपूर्वात् / अ० 5.1.130-131.. स्व, तल्, मतुप् ] 1: व्याकरण रूप ज्ञान की तरह बनते हैं। (2) 'तल्' प्रत्ययान्त शब्द सदा स्त्री होते हैं और उनके हा 'लता' की तरह बनते हैं। (3) 'इमनिच्' प्रसयान्त शब्द सदा पुं. होते हैं और उनके रूप 'महिमन्' की तरह बनते हैं। (क) 'स्व' (त्यम्) और 'तल्' (ता) प्रत्ययान्त रूप (क्रमशः)-गुरु> -गुरुत्वम्, गुरुता ( भारीपन या बड़प्पन ) / लघु> लघुत्वम्, लघुता (हल्कापन या 'छोटापन)। शुक्ल > गुक्लत्वम्, शुक्लता। शिशु>शिशुत्वमा शिशुता। मनुष्य > मनुष्यत्वम्, मनुष्यता / दीन>दीनत्वम्, दीनता / जड>जडत्वम्, जडता / मधुर> मधुरत्वम्, मधुरता / हीन>हीनत्वम्, हीनता / महद >महत्त्वम्, महत्ता। मुर्ख> मूर्खत्वम्, मूर्खता / विद्वस् (विद्वत् )>विद्वत्त्वम्, विद्वत्ता। दृढ> दृढत्वम्, दृढता / खिन्न>खिन्नत्वम्, खिन्नता / पटु>पटुत्वम्, पटुता / दुष्ट > दुष्टत्वम्, दुष्टता। (ख) 'इमनिन्' ( इमन्>इमा)प्रत्ययान्त रूप-वर्णवाची (नील, शुक्ल -आदि ), 'दृढ' आदि तथा 'पृथु' आदि शब्दों में इभनिच् प्रत्यय होता है। जैसे- मधुर+इमनि - मधुरिमन् - मधुरिमा ( मधुरस्य भावः) / शुक्ल >शुक्लिमा (शुक्लस्य भावः) / दूढ>ढिमा ( दृढस्य भावः) / पृथुप्रथिमा ( पृथोविःविशालता)। मृ>म्रदिमा ( मृदोर्भावः-मृदुता ) / गुरु गरिमा। महत > महिमा / तनु>तनिमा / काला>कालिमा। रक्त रक्तिमा। लाल > लालिमा / लघु> नचिमा। उष्ण उष्णिमा। शीत> शीतिमा। वक्र >यक्रिमा। बहु> बहिमा / अणु> अणिमा, चण्ड> वण्डिमा / नोट-'इमनिच्' में 'ईयसुन्' और 'इष्ठन्' के नियम 1 से 4 लरेंगे। (4) मत्वर्थीय- अस्त्य र्थक ( Possession)--'मतुप्' और 'इनि'1 किसी वस्तु का स्वामी होना (जिसे हिन्दी में 'बान्' अथवा काला'-युक्त शब्द के द्वारा प्रकट किया जाता है ) अर्थ में 'मतुप्' (मत या यत् ) और 'इनि' (इन् ) प्रत्यय होते हैं। जैसे-बुद्धि + मतुप्- बुद्धिमत् (नपुं०), बुद्धिमान् 1. ग्राम, जन, बन्धु, गज, और सहाय शब्दों से समूह अर्थ में भी 'तल' (ता) प्रत्यय जुड़ता है। जैसे-ग्राम > ग्रामता.(गाँवों का समूह), बन्धुता, जनता, सहायता। 2. मस्वयि कुछ अन्य प्रत्यय-(क) ठन (इक)-अकारान्त और बीहि आदि से दण्ड> दण्डिकः (पुं०), माया>मायिकः, धन>धनिकः, केश> केशिकः, ब्रीहि>नीहिकः। (ख) विनि (विन -माया आदि शब्दों सेमाया>मायाविन्>मायावी (पुं०), मायाविनी (स्त्री०)। यशस्> यशस्वी, मेधा>मेधावी, स्र>स्रग्बी। 1. तदस्यास्त्यस्मिन्निति मतुप / अत इनिठनौ / ब्रह्मादिभ्यश्च / अ०५.२.६४, 115-116 तथा लघु-सिद्धान्तकौमुदी 'तद्धितेषु मत्त्वर्थीय' प्रकरण, पृ०६४। 2. वही। 3. अस्मायामेधास्रजो विनिः / अ०.५.२.१२१