Book Title: Sanskrit Praveshika
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Tara Book Agency

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Page 31
________________ 1: व्याकरण संस्कृत-प्रवेशिका (4: तद्धित-प्रत्यय तद्धित' प्रत्यय जोड़ते समय स्मरणीय नियम'-(१) तद्धित' प्रत्ययों में जो ण, क्, आदि अनुबन्ध लगाये जाते हैं उनका लोप हो जाता है। अतः ये 'णित', 'कित्' आदि संज्ञा वाले कहलाते हैं। (2) 'मित', 'णित' और 'कित' संशावाले प्रत्ययों के जुड़ने पर प्रातिपदिक के प्रथम स्वर में वृद्धि होती है। जैसे-शिव + अण् - शैवः, वर्षा +ठक (इक)- वार्षिकः / (1) अपत्यार्थक ( Son or descendent of)-इन, अण और ढक' अपत्य ( सन्तान-पुत्र या पुत्री) अर्थ में इन् (1), अण् (अ) और हक् (एय) प्रत्यय होते हैं। इन प्रत्ययों के जुड़ने पर किसी के पुत्र या पुत्री का बोध होताहै। किसी वंश या गोत्र में उत्पन्न पौत्र आदि के लिए भी अपत्य शब्द का प्रयोग होता है। (क निम्न स्थानों में 'इञ्' (इ) प्रत्यय होता है 1. [कुछ शब्दों को छोड़कर प्रायः सभी अकारान्त शब्दों से / जैसे-दशरथ +इ-दाशरथिः (दशरथस्य अपत्यं पुमान् दाशरथिः- दशरथ का पुत्र, राम: दक्ष> दाक्षिः; द्रोण>द्रौणिः ( अश्वत्थामा ); सुमित्रा>सौमित्रिः (लक्ष्मण विदेह>वैदेही (सीता)। 2. बाहु आदि शब्दों से / जैसे-बाहु>वाहविः (बाहोरपत्यं पुमान्); उडुलोच >औडुलोमिः (उडूनि नक्षत्राणीव लोमानि यस्य स उडुलोमः, तस्य अपत्यं पुमान्) / (ख) निम्न स्थानों में 'अण्' (अ) प्रत्यय होता है 1. ऋषि ( मन्त्र-द्रष्टा), अन्धकवंशी (यादव), दृष्णिवंशी ( अहीर ) और कुरुवंशी से। जैसे-वसिष्ठ+अण्-वासिष्ठः ( वसिष्ठस्य अपत्यं पुमान् ) विश्वामिष>वैश्वामित्रः; वसुदेष>वासुदेवः (कृष्ण); अनिरुद्ध>ओनिडर यदु>यादवः; कुरु>कौरव ; पृथा ( कुन्ती)>पार्थः; रघुराधवः; नकुल) नाकुलः; कश्यप>काश्यपः पुरु>पौरवः पाण्डु>पाण्डवः / / 2. 'शिव' आदि शब्दों से-शिव>सवः; गङ्गा>गाङ्गः, विष्णु>वैष्णवः। 3. अश्वपति आदि (शतपति, धनपति, गणपति, राष्ट्रपति, कुलपति, गृहपति, पशुपति, धान्यपति, धन्वपति, सभापति, प्राणपति और क्षेत्रपति ) शब्दों सेअश्वपति> आश्वपतम्; राष्ट्रपति> राष्ट्रपतम्; गृहपति >गाहयतम् / 4. 'मातृ' शब्द से ( यदि उसके पूर्व संख्या, सम् वा भद्र पद हो)-द्विमातृ +अण् = द्वैमातुरः (योर्मातोरपत्यं पुमान् ); षण्मातृ>याण्मातुरः (षषणां मातृणामपत्यं पुमान् शिवजी का ज्येष्ठ पुत्र, कुमार); भद्रमातृ>भाद्रमातुर (भद्रमातुरपत्यं पुमान् - अच्छी माता की सन्तान); संमातृ>सांमातुरः। 5. कन्या शब्द से ( कन्या को 'कनीन' आदेश होगा)-कन्या>कानीर 1. अन्य स्मरणीय नियम-(क) (युवोरनाको / ठस्येकः / अ०७.१.१७.३.५०/ प्रत्यय के यु>अन; बु>अक; ठ>इक में बदल जाते हैं। जैसे-सायं +त् +ट्युल (अन)सायन्तनम्; शिक्षा+बुन -शिक्षकः, अस्ति+ठक (इक)आस्तिकः ( अस्ति परलोकः इत्येवं मतिर्यस्य सः)। (ख) (आयनेयीनीयियः फढखछषां प्रत्ययादीनाम् / अ०३.१२)- प्रत्यय के आदि में स्थित फ>आयन्: >एयः स्>ईन्; छ> ईय् घ>इय् में बदल जाते हैं / जैसे--युष्मद् + छ (ईषु )- युष्मदीयः, अस्माक+खन (ईन् ) आस्माकीनः, वाराणसी+ ढक्% वाराणसेयम्, ग्राम + खञ्-ग्रामीणः, राष्ट्र +घ राष्ट्रियः / 2. अपत्य अर्थ में कुछ अन्य प्रत्यय-(क) यत् (य)-राजन् और श्वशुर शब्दों से। जैसे-राजन + यत् - राजन्यः (राजवंश बाले, क्षत्रिय जाति ), श्वशुर >श्वर्यः (साला)। (ख) ण्य (य)-दिति, अदिति, आदित्य, पति आदि शब्दों से / ' 'णित होने से आदि स्वर में वृद्धि होगी। रूप रामवत् चलेंगे। जैसे—दिति + ण्य - दैत्यः, अदिति >आदित्यः, प्रजापति >प्राजापत्यः / (ग) ब (य)-गर्ग आदि शब्दों से। जैसे-गर्ग >गार्यः, वत्स>वात्स्यः, कुरुकौरव्यः, निषध>नैषध्यः / (घ) घ (इयू) क्षत्र शब्द से / ' जैसे-क्षत्र > क्षत्रियः / (5) ठक् ( इक )-रेवती. 1. तद्धितेष्वचामादेः / किति च / अ०७.२.११७-११८. 2. तस्यापत्यम् / अ०४.१.६२. 3. अपत्यं पौत्रप्रभृति गोत्रम् / अ० 4.1.162.. 4. राजश्वशुराद्यत् / अ०.४.१.१३७, राज्ञोजातावेवेति वाच्यम् ( वा०)। 5. दित्यदित्यादित्यपत्युत्तरपदाण्ण्यः / कुरुनाऽऽदिभ्यो प्यः / 4.1.85, 172. 6. गर्गाऽऽदिभ्यो यज् / अ० 4.1.105. 7. क्षत्राद् घः / अ० 4.1.138. आदि शब्दों से। जैसे-रेवती > रवतिकः / (च) अञ् (अ)-पुत्र >पौत्रः, पञ्चाल>पाञ्चालः / / 1. 'अण्' का अपत्य से अन्य अर्थों में भी प्रयोग होता है। देखें, पृ०५७। 1. रेवत्यादिभ्यष्टक् / अ० 4.1.146. 2. अनुष्यानन्तये विदादिभ्योऽञ् / जनपदशब्दात् क्षत्रियादम् / अ०४.१.१०४,१६८. 3. अत इञ् / अ० 4.1.65. 4. बाह्वादिभ्यश्च / 04.1.61. 5. ऋष्यन्धकवृष्णिकुरुभ्यश्च / अ० 4.1.114 / 6. शिवादिभ्योऽण / अ० 4.1.112 / 7. अश्वपत्यादिभ्यश्च / अ० 4.1.84 / 8. मातुरत्संख्यासंभद्रपूर्वायाः / अ० 4.1.115 / 9. कन्यायाः कनीन च / अ० 4.1.116 / अवेद में कनीन शब्द भी है।

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