Book Title: Sanskrit Praveshika
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Tara Book Agency

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Page 19
________________ 24 ] संस्कृत-प्रवेशिका [2 : सन्धि व्यजन-सन्धि ] 1: व्याकरण [25 अप + घटः = अब्घटः, वाक् + दानम् - वाग्दानम्, जगत् + ईशः - जगदीयाः, षट् + एव-पडेव, चित् + आनन्दः-चिदानन्दः, अच्-+- अन्तः-अजन्तः, सुप् + अन्तःसुबन्तः, दिक्+हस्ती = दिग्हस्ती,दिक् + गजः - दिग्गजः। बोट-१. शेष 'झल्'. वर्गों के उदाहरणों का प्रायः अभाव होने से यहाँ केवल क्च व प् को गिनाया गया है। 2. झलां जशशि (8.4 ५३)-अपदान्त झल् + झा -जश्त्व अपदान्त ( पदमध्य ) घ दध् म् ( वर्ग के चतुर्थ वर्ण) को क्रमशः न् ज् इदम् ( वर्ग का तृतीय वर्ण) होता है, यदि बाद में 'मश्' ( वर्ग के 3, 4) वर्ण हो। जैसे-दुष् + धम् - दुग्धम्; लभ् +धः लब्धः; सिध् +धिः- सिद्धिः / 1. चत्वं-सन्धि (घोष और अघोष वर्गों की सन्धि ): सरि च ( भोष + अघोष - अघोष / झन् + खर् - चत्वं)- ज्द ( वर्ग के तृतीय वर्ण) को क्रममः कन्ट् त प (बर्ग का प्रथम वर्ण ) हाता है, यदि बाद में कोई 'खर' (अघोष ) वर्ण हो।' जैसे-तद् +परः- तारः, षड्+टीका-पट्टीका, विपद+कालः - विपत्कालः, दिग+पालः-दिक्पालः, उद्+स्थानम् उत्थानम् / ' 5 छव-सन्धि ( पदान्त भय् + + अट् के साथ होने वाली सन्धि ) : शश्छोऽटि ( पदान्त झय् + श्+अट् - छत्व )-'' को विकल्प से 'छ' होता है, यदि 'म्' के पूर्व 'मय' (वर्ग के 1-4 वर्ण ) हो और बाद में 'अट्' (स्वर, ह. य ब )' जैसे-जनत् + शान्तिः - जगच्छान्तिः, जगच्यान्तिः, 1. वावसाने (8.4. 56.) यदि बाद में कोई वर्ण न हो तो विकल्प से प्रथम या तृतीय वर्ण होता है / जैसे-रामात्, रामाद, वाक्, बाम् / / 2. उत्पानम् ( उत्थ्यानम् ) और उत्थापकः ( उत्थ्यापकः)-यहाँ 'उदः स्थास्तम्भोः पूर्वस्य' (8, 4, 61) सूत्र से 'स्' को पूर्वसवर्ण होने पर 'उद्+ + थानम्' रूप बना। पश्चात् 'झरो झरि सवणे' (8, 4. 65) सूत्र से '' का - बैकल्पिक लोप और 'सरि च' से 'द' को 'द' होने पर 'उत्थानम्' रूप बना। 1. (क) छत्वममीति वाच्यम् (वा.)-पदान्त भय् + + अम् - छत्व / / जैसे-तद्+श्लोकेन- तच्छलोकेन, तच्श्लोकेन / (ख) झयो होऽन्यतरस्याम् (८.४.६२)-'ह' (नाद, घोष, संवार और महाप्राण-प्रयत्न वाला)को विकल्प से पूर्वसवर्ण ( उसी प्रकार के प्रयत्न वाले वर्ग का चतुर्थ वर्ण) होता है, यदि पहले 'झय्' वर्ण हो (झय् + ह - पूर्वसवर्ण ) / जैसे-वाक् + हरिः = वाग्धरिः, वारहरिः, अच् + हलो-अज्झलौ, अज्हली। तद +शिवः- तच्छिवः, तशिवः / / वाक् +शूरः- वाक्यरः, वाक्शूरः / तत् + 'श्रुत्वा-तच्छ त्वा, सम्धुत्वा, / षट् + शेरते •षछेरते, षट्शेरते। 6. अनुस्वार-सन्धि ( पदान्त 'म्' की व्यञ्जन वर्ण के साथ सन्धि ): मोऽनुस्वारः (पदान्त 'म' + व्यञ्जन = अनुस्वार )-पदान्त 'म' को अनुस्वार (-) होता है, यदि बाद में कोई व्यञ्जन वर्ण हो / जैसे-हरिम् + बन्दे-हरि वन्दे। सत्यम्+वद- सत्यं बद। पुस्तकम् + पठति - पुस्तकं पठति / गृहम् + गच्छति - गृहं गच्छति / धर्मम् + चर-धर्म चर। 7. परसवर्ण-सन्धि ( अनुस्वार की 'यम्' वर्ण के साथ सन्धि): (क) अनुस्वारस्य यथि परसवर्णः (अपदान्त अनुस्वार+यम् -परसवर्ण)अनुस्वार को परसवर्ण (आगे आने वाले वर्ण के वर्ग का पञ्चम अक्षर) होता. है, यदि बाद में 'य' (वर्ग के 1-5, य र ल व) हो। जैसे-शां+तःशान्तः, अं+क: -अङ्कः, अं+कित:-अङ्कितः (चिह्नित), के+ठ: कण्ठः, के +पनम् - कम्पनम्, घं+टा-घण्टा, पंचम्मच, कां+त:- कान्तः (सुन्दर)। (ब) वा पदान्तस्य (पदान्त अनुस्वार+यय-विकल्प से परसवर्ण)-पदान्त अनुस्वार को विकल्प से परसवर्ण होता है, यदि बाद में 'पम्' वर्ण हो। जैसे१. 'तद् + शिवः' यहाँ 'स्तोः श्चुना श्चुः' से 'द' को 'ज्', 'खरि च' से 'ज्' को 'च' होगा / पश्चात् 'शरछोऽटि' से 'श्' को 'छ्' होगा। 2. (क) नश्चाऽपदान्तस्य झलि (8. 3. २५)-अपदान्त 'न्' और 'म्' को अनुस्वार होता है, यदि बाद में कोई 'झल' वर्ण ( वर्ग के 1-4, ऊष्म) हो। जैसे~यशान् + सि-यशांसि / (ख) नश्छव्यप्रशान् (8. ३.७)(पदान्त म् + छन् + अम् - अनुनासिकत्व तथा शर)-पदान्त 'न' को अनुनासिकत्व तथा 'शर्' (श् स् ) होता है (प्रशान् शब्द को छोड़कर), यदि बाद में 'छन्' (च् छट् त् थ् ) और उसके बाद 'अम्' हो। जैसे चक्रिन्+जायस्व - चक्रि स्त्रायस्व, चस्त्रिायस्व, कस्मिंघिचत्, करिमश्चित . बुद्धिमाश्चात्रः, बुद्धिमाश्चात्रः, देवान् +तरति-देवास्तरति, देवांस्तरति / परन्तु प्रशान् +तनोति प्रशान्तनोति / अपदान्त-हन + ति-हन्ति / तोलि (8. 4. ६.)-तवर्ग के बाद 'ल' हो तो परसवर्ण ( उच्चारण-स्थान के सास्य से 'तवर्ग' को 'ल') होता है। यदि 'तवर्गीय' अनुनासिक वर्ण (न) होगा तो उसके स्थान पर होने वाला 'ल' भी अनुनासिक (ले) ही होगा (तवर्ग+ल-परसवर्ण = ल्ल.) जैसे-तद् + लयः -- तल्लयः; उत् + लेखः- उल्लेखः, विद्वान् + लिखति -विद्वाल्लिखति; कुशान+लाति -कुशाल्लात्ति।

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