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समयसार
में प्रवाहित कर दिया था।
इनके पिता मूलत: आगरा-निवासी ही थे तथा इन्हें भी बहुत दिनों तक आगरा रहना पड़ा था। उस समय आगरा जैन विद्वानों का केन्द्र था। इनके सहयोगियों में पं० रामचन्द्रजी, चतुर्भुज वैरागी, भगवतीदासजी, धर्मदासजी, कुंवरपालजी और जगजीवनरामजी विशेष उल्लेख योग्य हैं। ये सभी कवि थे। महाकवि बनारसीदास का सन्तकवि सुन्दरदास से सम्पर्क था। बताया गया है?—'प्रसिद्ध जैन कवि बनारसीदास के साथ सुन्दरदास की मैत्री थी। सुन्दरदास जब आगरे गये थे तब बनारसीदास के साथ सम्पर्क हुआ था। बनारसीदासजी सुन्दरदास की योग्यता, कविता और यौगिक चमत्कारों से मुग्ध हो गये थे। तभी इतनी श्लाघायुक्त कंठ से उन्होंने प्रशंसा की थी। परन्तु वैसे ही त्यागी और मेधावी बनारसीदासजी भी थे। उनके गुणों से सुन्दरदासजी प्रभावित हो गये, इसी से वैसी अच्छी प्रशंसा उन्होंने भी की थी।'
महाकवि बनारसीदास का सम्पर्क महाकवि तुलसीदास के साथ भी था। एक किंवदंती में कहा गया है कि कवि तुलसीदास ने अपनी रामायण बनारसीदास को देखने के लिये दी थी। जब मथुरा से लौटकर तुलसीदास आगरा आये तो बनारसीदास ने रामायण पर अपनी सम्मति "विराजै रामायण घटमाही मर्मी होय मर्म सो जाने मूरख समझें नाहीं।'' इत्यादि पद्य में लिखकर दी थी। कहते हैं इस सम्मति से प्रसन्न होकर ही तुलसीदास ने कुछ पद्य भगवान् पार्श्वनाथ की स्तुति में लिखे हैं। ये पद्य शिवनन्दन द्वारा लिखित गोस्वामीजी की जीवनी में प्रकाशित हैं। इनकी निम्न रचनाएँ हैं
१. नाममाला—एक सौ पचहत्तर दोहों का छोटा-सा शब्दकोष है। इसकी सं० १६७० में जौनपुर में रचना की थी।
२. नाटकसमयसार—यह कविवर की सबसे प्रसिद्ध और महत्त्वपूर्ण रचना है। इसकी रचना सं० १६९३ में आगरा में की गयी थी।
३. बनारसीविलास-इसमें ५७ फुटकर रचनाएँ संग्रहीत हैं। इसका संकलन सं० १७०१ में पं० जगजीवन ने किया था।
४. अर्द्धकथानक—इसमें कवि ने अपनी आत्मकथा लिखी हैं। इसमें संवत् १६९८ तक की सभी घटनाएँ दी गयी हैं। १-२. डॉ०नेमिचन्द्र शास्त्री ज्योतिषाचार्यकृत हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन, भाग १,
पृ० २४४ से साभार उद्धृत।
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