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समयसार
भी जो सम्यग्ज्ञानी पुरुषार्थ कर रहे, अतः इन परपदार्थों के सम्बन्ध से होनेवाली नानापन की बुद्धि को त्यागकर आत्मा के एकपन का अनुभव करो, जो संसार- दुख से छूटने का मूल उपाय है।
इस प्रकार एकपनकर जानी हुई जो आत्मा है उसके जानने के उपाय प्रमाण, नय और निक्षेप हैं। ये उपाय भी अभूतार्थ हैं। इनमें एक जीव ही भूतार्थ है। प्रमाण दो तरह का है - एक प्रत्यक्ष और दूसरा परोक्ष । जो प्रमाण परकी अपेक्षा न कर केवल आत्मद्रव्य के द्वारा ही उत्पन्न होता है उसे प्रत्यक्ष कहते हैं । वह प्रत्यक्ष सकल और विकल के भेद से दो तरह का है । सकलप्रत्यक्ष केवली भगवान् के होता है, उसे केवलज्ञान कहते हैं और विकल प्रत्यक्ष अवधिज्ञान तथा मन:पर्ययज्ञान के भेद से दो प्रकार का होता है । उनमें अवधिज्ञान असंयमी और संयमी दोनों के होता है किन्तु मन:पर्ययज्ञान संयमी के ही होता है। इनमें अवधिज्ञान भी देशावधि, परमावधि और सर्वावधि के भेद से तीन प्रकार का होता है । अवधिज्ञान सामान्यरूप से मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि दोनों के ही होता है किन्तु मन:पर्ययज्ञान ऐसा नहीं है, वह तो संयमी के ही होता है ।
परोक्षज्ञान मति और श्रुत के भेद से दो प्रकार का है। इनमें मतिज्ञान इन्द्रिय और मन से उत्पन्न होता है । असंज्ञी जीवों के इन्द्रियजन्य ही मतिज्ञान है परन्तु संज्ञी जीवों के इन्द्रिय और मन दोनों से उत्पन्न होनेवाला मतिज्ञान है। संज्ञी जीवों का श्रुतज्ञान भी मन तथा इन्द्रियों से उत्पन्न होता है और असंज्ञी जीवों के इन्द्रियों द्वारा ही होता है। 'श्रुतमनिन्द्रियस्य' यह जो सूत्र है वह अक्षरात्म श्रुतज्ञान के अर्थ है। यह श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है । जहाँ श्रुतज्ञान से श्रुतज्ञान होता है वहाँ परम्परा से, विचार किया जावे तो, मतिपूर्वक ही श्रुतज्ञान की उत्पत्ति होती है।
यदि इन दोनों ज्ञानों का प्रमाता, प्रमाण और प्रमेय की विवक्षा से विचार किया जावे तो भूतार्थ हैं अर्थात् दोनों ही प्रमाण हैं और सम्पूर्ण भेद जिसमें गौणता को प्राप्त हो गये हैं ऐसे जीव के स्वभाव को लेकर विचार किया जावे तो अभूतार्थ हैं।
नय दो प्रकार का है— एक द्रव्यार्थिक और दूसरा पर्यायार्थिक, क्योंकि इनका प्रतिपाद्य पदार्थ सामान्यविशेषात्मक है। इन दो अंशों में जो सामान्य अंश को कहने वाला है वह द्रव्यार्थिकनय है । द्रव्यार्थिकनय सामान्य को विषय करने वाला है, इसका यह तात्पर्य है कि इस नय का विषय सामान्य है, यह तात्पर्य नहीं कि विशेष कोई वस्तु ही नहीं है। हाँ, वह अवश्य है, पर यह नय उसे विषय नहीं करता किन्तु उसकी अपेक्षा रखता है, इसीसे आचार्य ने लिखा है- 'सापेक्षो हि सन्नयः ' ।
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