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जीवाजीवाधिकार
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आत्मा की महिमा का गान करते हुए श्री अमृतचन्द्र स्वामी कलशा द्वारा कहते हैं
वसन्ततिलकाछन्द मज्जन्तु निर्भरममी सममेव लोका
आलोकमुच्छलति शान्तरसे समस्ताः। आप्लाव्य विभ्रमतिरस्करिणीं भरेण
प्रोन्मग्न एष भगवानवबोधसिन्धुः।।३२।। अर्थ-विभ्रमरूपी परदा को शक्तिपूर्वक दूरकर यह भगवान् ज्ञानरूपी सागर प्रकट हुआ है सो लोकपर्यन्त छलकते हुए इसके शान्त रस में ये समस्त प्राणी एक साथ अतिशयरूप से निमग्न हों।
भावार्थ- इस जीव का भेदज्ञानरूपी सागर मिथ्यादर्शनरूपी परदा के भीतर छिपा है। इसीसे संसार के समस्त प्राणी बाह्य पदार्थों में अहंकार-ममकार करते हुए निरन्तर अशान्त रहते हैं। अतः उस मिथ्यादर्शनरूपी परदा को अत्यन्त दूरकर यह भगवान भेदविज्ञानरूपी सागर प्रकट है सो इसके शान्त रस में- आह्लाददायक परिणति में संसार के समस्त प्राणी एक साथ अच्छी तरह अवगाहन करें। संसार के अन्य समुद्रों का रस अर्थात् जल तो क्षाररूप होने से अवगाहन के योग्य नहीं होता, परन्तु इस भेदविज्ञानरूपी सागर का रस आर्थात् जल अत्यन्त शान्त है, आह्लाददायक है और लोकान्त तक छलक रहा है। अत: अवगाहन के योग्य है। यहाँ आचार्य महाराज ने यह कामना प्रकट की है कि संसार के साथ प्राणी विभ्रम अर्थात् मिथ्यात्व को नष्टकर भेदज्ञानी होते हुए शान्ति का अनुभव करें, क्योंकि बिना भेदज्ञान के पर से ममत्व नहीं हट सकता और पर में ममत्व के हटे बिना शान्ति का अनुभव नहीं हो सकता।
आत्मख्याति-टीका के रचयिता श्री अमृतचन्द्र स्वामी ने इस समयसार का वर्णन एक नाटक के रूप में किया है। नाटक के प्रारम्भ में एक पूर्वरंग' नाम का
१. यन्नाट्यवस्तुनः पूर्वं रङ्गविघ्नोपशान्तये ।
कुशीलनाः प्रकुर्वन्ति पूर्वरङ्गः स उच्यते।। - साहित्यदर्पण परिच्छेद ६। सभापति: सभासभ्या गायका वादका अपि । नटी नटश्च मोदन्ते यत्रान्योन्यान् रञ्जनात् ।। अतो रङ्ग इति ज्ञेयः पूर्वं यत्स प्रकल्पते। तस्मादयं पूर्वरङ्ग इति विद्वद्भिरुच्यते ।। - भावप्रकाशिका।
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