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निर्जराधिकार
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करते हैं। इसलिये समस्त अवान्तर भेदों से रहित आत्मा का स्वभावभूत जो एक ज्ञान है उसी का आलम्बन लेना चाहिये। उसी के आलम्बन से पद की प्राप्ति होती है, भ्रान्ति नष्ट होती है, आत्मलाभ होता है और अनात्मा का परिहार होता है, उसके होने पर कर्म वृद्धि को प्राप्त नहीं होते, राग-द्वेष मोह उपद्रव नहीं करते, फिर कर्म का आस्रव नहीं होता, आस्रव के अभाव में कर्मबन्ध नहीं होता, पूर्व का बँधा हुआ कर्म अपना रस देकर निर्जीर्ण हो जाता है और इस रीति से सम्पूर्ण कर्मों का अभाव होने से साक्षात् मोक्ष हो जाता है।।२०४।। आगे इसी भाव को कलशा में प्रकट करते हैं
शार्दूलविक्रीडितछन्द अच्छाच्छाः स्वयमुच्छलन्ति यदिमाः संवेदनव्यक्तयः
निष्पीताखिलभावमण्डलरसप्राम्भारमत्ता इव। यस्याभिन्नरसः स एष भगवानेकोऽप्यनेकीभवन्
वल्गत्युत्कलिकाभिरद्भुतनिधिश्चैतन्यरत्नाकरः।। १४१।। अर्थ-जिसकी ये अतिशय निर्मल, संवेदन-व्यक्तियाँ-ज्ञान की अवान्तर विशेषताएँ अपने आप उछल रही हैं और इस तरह उछल रही हैं मानो अतिशयरूप से पिये हुए समस्त पदार्थों के समूहरूप रस के बहुत भारी बोझ से मतवाली ही हो रही हों, जो एक अभिन्न रस का धारक है, तथा अनेक आश्चर्यों की निधि है, ऐसा यह भगवान् चैतन्यरूपी रत्नाकर-आत्मारूपी समुद्र, एक होकर भी अनेक रूप होता हुआ ज्ञान के विकल्परूप तरंगों से चञ्चल हो रहा है।
भावार्थ-यहाँ आत्मा को रत्नाकर अर्थात् समुद्र की उपमा दी है। सो जिस प्रकार समुद्र में अत्यन्त निर्मल लहरें स्वयमेव उछलती हैं उसी प्रकार इस आत्मा में भी ज्ञान के विकल्परूप अनेक लहरें स्वयमेव उठ रही हैं। ज्ञान के ये विकल्प अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार अनेक पदार्थों के समूह को जानते हैं। जिसप्रकार समुद्र अभिन्नरस अर्थात् जल से तन्मय होता है उसीप्रकार यह आत्मा अभिन्नरस अर्थात् ज्ञान से तन्मय है। जिसप्रकार समुद्र अनेक आश्चर्यों का भाण्डार है उसी प्रकार यह आत्मा भी अनेक आश्चर्यों का भण्डार है और जिसप्रकार समुद्र सामान्यरूप से एक होकर भी तरंगों के कारण अनेकरूप दिखाई देता है उसीप्रकार यह ज्ञानरूप आत्मा भी सामान्यरूप से एक होकर भी अनेकरूप जान पड़ता है। तात्पर्य यह है कि ज्ञानरूप आत्मा परमार्थ से एक है। परन्तु मतिज्ञानादि के विकल्प से अनेकरूप भासमान होता है।।१४१।।
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