Book Title: Samaysara
Author(s): Ganeshprasad Varni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 489
________________ ४१८ समयसार शार्दूलविक्रीडितछन्द अर्थालम्बनकाल एव कलयन ज्ञानस्य सत्त्वं बहि ज्ञेयालम्बनलालसेन मनसा भ्राम्यन् पशुर्नश्यति। नास्तित्वं परकालतोऽस्य कलयन् स्याद्वादवेदी पुन स्तिष्ठत्यात्मनिखातनित्यसहजज्ञानैकपुञ्जीभवन्।।२५६।। अर्थ- एकान्तवादी अज्ञानी पदार्थों के आलम्बनकाल में ही ज्ञान के अस्तित्व को स्वीकार करता हुआ बाह्य ज्ञेयों के आलम्बन की इच्छा से युक्त मन से भ्रमण करता है अर्थात् इस विचार में निमग्न रहता है कि बाह्य ज्ञेयों का आलम्बन मिले तो हमारे ज्ञान उत्पन्न हो। ऐसी विचारधारा वाला एकान्तवादी अज्ञानी अर्थालम्बनकाल के अतिरिक्तकाल में ज्ञान के अस्तित्व को स्वीकार न करता हुआ नष्ट होता है। परन्तु स्याद्वादी परकाल की अपेक्षा ज्ञन के नास्तित्व को स्वीकार करता हुआ भी आत्मा में अतिशयरूप से गड़े हुए अर्थात् तादात्म्यभाव से स्थित नित्य सहज ज्ञान का एक पुञ्ज होता हुआ सदा स्थित रहता है अर्थात् कभी नष्ट नहीं होता। भावार्थ- एकान्तवादी का कहना है कि ज्ञान का अस्तित्व ज्ञेयपदार्थों के आलम्बनकाल में ही रहता है अन्यकाल में नहीं। एतावता जब ज्ञेय पदार्थों का आलम्बन नहीं रहता तब ज्ञान भी नहीं रहता, इस तरह ज्ञान के नाश को स्वीकार करता हुआ एकान्तवादी अज्ञानी नाश को प्राप्त होता है। परन्तु स्याद्वादी कहता है कि परकाल की अपेक्षा ही ज्ञान का नास्तित्व है स्वकाल की अपेक्षा नहीं। ज्ञान का आत्मा के साथ नित्य तादात्म्य सम्बन्ध है अत: आत्मा निरन्तर नित्य साहजिक ज्ञान का एक पुञ्जरूप होता हुआ सदा विद्यमान रहता है। यह परकाल की अपेक्षा नास्तित्व का दशवाँ भङ्ग है।।२५६।। शार्दूलविक्रीडितछन्द विश्रान्तः परभावभावकलनान्नित्यं बहिर्वस्तुषु। ___ नश्यत्येव पशुः स्वभावमहिमन्येकान्तनिश्चेतनः। सर्वस्मानियतस्वभावभवनज्ञानाद्विभक्तो भवन् स्याद्वादी, तु न नाशमेति सहजस्पष्टीकृतप्रत्ययः।।२५७।। अर्थ- जो परभाव को ही अपना भाव समझकर निरन्तर बाह्य वस्तुओं में विश्राम को प्राप्त है तथा स्वभाव की महिमा में एकान्तरूप से निश्चेतन है- जड़ है- स्वभाव की महिमा से अपरिचित है, ऐसा अज्ञानी एकान्तवादी नियम से नष्ट होता है। परन्तु जिसका स्वभावरूप परिणमन निश्चित है ऐसे ज्ञान की अपेक्षा समस्त For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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