Book Title: Samaysara
Author(s): Ganeshprasad Varni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 492
________________ स्याद्वादाधिकार अनुष्टुप् इत्यज्ञानविमूढानां ज्ञानमात्रं प्रसाधयन् । आत्मतत्त्वमनेकान्तः स्वयमेवानुभूयते।। २६१।। अर्थ- इस प्रकार अज्ञान से विमूढ़ प्राणियों के लिये ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व को सिद्ध करता हुआ अनेकान्त स्वयं ही अनुभव में आता है ।। २६१ ।। ४२१ अनुष्टुप् एवं तत्त्वव्यवस्थित्या स्वं व्यवस्थापयन् स्वयम् । अलङ्घयं शासनं जैनमनेकान्तो व्यवस्थितः ।। २६२ ।। अर्थ - इस प्रकार तत्त्व की व्यवस्था के द्वारा जो स्वयं अपने आप को व्यवस्थित कर रहा है ऐसा यह व्यवस्थित अनेकान्त जिनेन्द्र भगवान् का अलङ्घय शासन है। भावार्थ - यह अनेकान्त स्वयं व्यवस्थित है तथा तत्त्व की उत्तम व्यवस्था करनेवाला है। इसीलिये यह जिनेन्द्र भगवान् का अलंघनीय शासन माना गया है ।।२६२।। Jain Education International यहाँ कोई कहता है कि जब आत्मा अनेक धर्ममय है तब उसका ज्ञानमात्र से कथन क्यों किया है? उसका उत्तर देते हैं - लक्षण की प्रसिद्धि द्वारा लक्ष्य की प्रसिद्धि के लिये आत्मा को ज्ञानमात्र कहा है । वास्तव में ज्ञान आत्मा का लक्षण है क्योंकि वह आत्मा का असाधारण गुण है। अतएव ज्ञान की प्रसिद्धि द्वारा उसके लक्ष्यभूत आत्मा की प्रसिद्धि होती है । फिर प्रश्न है कि इस लक्षण की प्रसिद्धि से क्या प्रयोजन है, लक्ष्य ही सिद्ध करना चाहिये ? उत्तर देते हैं कि जिसे लक्षण प्रसिद्ध नहीं है उसे लक्ष्य की प्रसिद्धि नहीं होती; इसके विपरीत जिसे लक्षण प्रसिद्ध है उसे लक्ष्य की प्रसिद्धि होती है । फिर प्रश्न है कि वह लक्ष्य है क्या वस्तु, जो कि ज्ञान की प्रसिद्धि द्वारा उससे भिन्न सिद्ध किया जाता है ? उत्तर देते हैं कि ज्ञान से भिन्न लक्ष्य नहीं है क्योंकि ज्ञान और आत्मा में द्रव्यपन की अपेक्षा अभेद है । पुनः प्रश्न है- तब लक्ष्य - लक्षण का विभाग किसके द्वारा किया गया है ? उत्तर देते हैं कि— प्रसिद्ध-प्रसाध्यमान के द्वारा किया गया है। ज्ञान प्रसिद्ध है क्योंकि ज्ञानमात्र स्वसंवेदन से सिद्ध है। उन प्रसिद्ध ज्ञान के द्वारा प्रसाध्यमान है उससे अविनाभूत अनन्त धर्मों का समुदायरूप आत्मा । इसलिये ज्ञानमात्र में निश्चलरूप से गड़ी हुई दृष्टि के द्वारा क्रमप्रवृत्त और अक्रमप्रवृत्त ज्ञान से अविनाभूत जितना जो कुछ अनन्त धर्मों का समूह दिखाई देता है वह सम्पूर्ण ही निश्चय से एक आत्मा है। इसीलिये For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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