Book Title: Samaysara
Author(s): Ganeshprasad Varni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 514
________________ परिशिष्ट ४४३ को वि दिदच्छो साहू संपडिकाले भणिज्ज रूवमिणं। पच्चक्खमेव दिटुं परोक्खणाणे पवटुंतं।। अर्थ-छद्मस्थावस्था में आत्मा का परोक्षज्ञान होता है। इसके विपरीत यदि किसी का ऐसा कथन हो कि मैं आत्मा का प्रत्यक्ष दर्शन करता हूँ तो उससे हम पूछते हैं—जिसने पदार्थ को प्रत्यक्ष नहीं जाना है ऐसा कौन साधु इस समय कह सकता है कि मैंने इस आत्मस्वरूप को प्रत्यक्ष ही देखा है जब कि वह आत्मा परोक्ष श्रुतज्ञान का विषय हो रहा है। अर्थात् कोई नहीं कह सकता। भावार्थ-स्वसंवेदनज्ञान की अपेक्षा आत्मा का प्रत्यक्ष जानना कहा जाता है। परन्तु इन्द्रियों द्वारा उसका ज्ञान नहीं होता, एतावता परोक्ष कहलाता है। यद्यपि आत्मा परोक्ष है तथापि उसका ध्यान निषिद्ध नहीं है।। (१९९ और २००वीं गाथा के बीच) कह एस तुज्झ ण हवदि विविहो कम्मोदयफलविवागो। परदव्वाणुवओगो ण दु देहो हवदि अण्णाणी।। अर्थ—यहाँ कोई प्रश्न करता है कि यह नाना प्रकार का कर्मोदय के फल का विपाक तेरा क्यों नहीं है? इसके उत्तर में कहते हैं कि जिस कारण यह कर्मोदय का विपाकफल तेरे साथ लगे हुए कर्मरूप परद्रव्य का उपयोग अर्थात् उदयरूप है, इसलिये तेरा नहीं है। यह कर्मोदय के फल का विपाक तेरा नहीं है। इसी तरह यह शरीर भी तेरा नहीं है क्योंकि यह अज्ञानी है-ज्ञानदर्शन से रहित है। भावार्थ भावकर्म, द्रव्यकर्म और नोकर्म तेरे नहीं है। (२११ और २१२वीं गाथा के बीच) धम्मच्छि अधम्मच्छी आयासं सुत्तभंगपुव्वेसु। संगं च तहा णेयं देव-मणुअ-तिरिय-णेरइयं।। अर्थ-जिसके बाह्य द्रव्यों में इच्छा नहीं है वह अपरिग्रह-परिग्रह से रहित कहा गया है। ऐसा जीव, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश, अङ्गपूर्वगतश्रुत, बाह्याभ्यन्तर परिग्रह तथा देव, मनुष्य, तिर्यञ्च और नारक पर्याय की इच्छा नहीं करता अर्थात् इन सबको अपने शुद्धात्मद्रव्य से पृथक् मानता है। (२१९ और २२०वीं गाथा के बीच) णागफलीए मूलं णाइणितोयेण गब्भणागेण। Jain Education Internatणाग होइ सुवण्णं धम्मंतं मत्थवाएण।। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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