Book Title: Samaysara
Author(s): Ganeshprasad Varni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 537
________________ ४६६ समयसार गाथा निश्चयनय के शुद्ध निश्चयनय और अशुद्ध निश्चयनय इस प्रकार दो भेद किये हैं तथा व्यवहारनय के सद्भुत और 'असद्भुत के भेद से २ भेद कर उनके अनुपचरित और उपचरित भेद किये हैं। नय का विशिष्ट ज्ञान करने के लिये आलापपद्धति और पञ्चाध्यायिका नयप्रकरण द्रष्टव्य है। नवतत्त्व १३ जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर निर्जरा, बन्ध और मोक्ष- ये नौ तत्त्व हैं इन्हीं को नौ पदार्थ कहते हैं। निक्षेप १३ नय और प्रमाण के अनुसार प्रचलित लोकव्यहार को निक्षेप कहते हैं। इसके नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव की अपेक्षा चार भेद हैं। इनका विस्तृत वर्णन कर्मकाण्ड अथवा सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक में द्रष्टव्य है। २२८ निःशङ्कत अंग इहलोकभय, परलोकभय, अत्राणभय, अगुप्तिभय, वेदनाभय, अकस्माद्भय और मरणभय इन सात भयों से रहित होना निःशङ्कित अंग है। इस अंग का धारक जीव उक्त सात भयों से भीत होकर श्रद्धा से विचलित नहीं होता। निःकांक्षित अंग ३०६ कर्मफल की इच्छा नहीं करना । निंदा आत्मसाक्षी पूर्वक दोषों को प्रकट करना निन्दा है। १०० निमित्त नैमित्तिकभाव जो कार्य की सिद्धि में सहायक होता है। उसे निमित्त कहते हैं और निमित्त से जो Jain Education International २३१ गाथा कार्य होता है उसे नैमित्तिक कहते हैं। निमित्त के साक्षात् - निमित्त और परम्परा - निमित्त की अपेक्षा दो भेद हैं। कुंभकार अपने योग और उपोग का कर्त्ता है, यह साक्षात् निमित्त है और कुम्भकार घट का कर्त्ता है, यह परम्परा-निमित्त है। निमित्तकारण ८२ जो उपादानकारण के द्वारा होनेवाली कार्यरूप परिणति में सहायक होता है उसे निमित्तकारण कहते हैं। जैसे घड़ा की उत्पत्ति में कुम्भकार आदि । निर्जरा १९३ कर्मों का एकदेश क्षय होना निर्जरा है। इसके सविपाक और अविपाक के भेद से दो भेद हैं। निर्विचिकित्सा अंग नहीं करना । जुगुप्सा निवृत्ति ३०६ बहिरङ्ग विषय - कषायादिक में होनेवाली चेष्टा से चित्त की प्रवृत्ति को रोकना निवृत्ति है। नोकर्म २३१ १९ औदारिक, वैक्रियिक, आहारक और तैजस- ये चार शरीर नोकर्म कहलाते हैं। पञ्चत्व ४३ मृत्यु । मृत्यु के समय जीव का शरीर पञ्चभूतों में बिखर जाना है। इसलिये पञ्चरूप हो जाने को मृत्यु कहते है। परसमय २ जो पुगलकर्म प्रदेशों में स्थित है अर्थात् उन्हें आत्मरूप या आत्मा के मानता है वह परसमय है। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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