Book Title: Samaysara
Author(s): Ganeshprasad Varni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 541
________________ ४७० समयसार गाथा गाथा सिद्ध कहलाते हैं। ये सिद्ध लोक के संयम २६६ (क) अग्रभाग में तनुवातवलयसम्बन्धी इन्द्रिय-मनोनिग्रह और प्राणिरक्षण। उपरितन ५२५ धनुष के क्षेत्र में रहते हैं। स्याद्वाद २४६,२६६,२६८ (क) स्थितिबन्धस्थान ५४ स्यात् (कथंचित्) की अपेक्षा से कथन भिन्न-भिन्न स्वभाववाली कर्मप्रकृतियों का करना। इसे अपेक्षावाद भी कहते हैं। कालान्तर में स्थित रह सकना। स्याद्वादशुद्धि २६४ (क) स्थितीकरण २३४ एकान्त का निराश करके अनेकान्त का उन्मार्ग में जाते हुए अपने आपको तथा पर प्रतिपादन करना। को स्थिर करना। स्वसमय स्पर्द्धक ५२ जो अपने दर्शन, ज्ञान और चारित्र स्वभाव वर्गणाओं के समूह को स्पर्द्धक कहते हैं। में स्थित है उसे स्वसमय कहते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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