Book Title: Samaysara
Author(s): Ganeshprasad Varni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 538
________________ परिशिष्ट ४६७ गाथा गाथा ३०६ ६७ १३ पुद्गल परिग्रह २०८ प्रत्याख्यान ३९४ बाह्य पदार्थों के ममत्वभाव को परिग्रह आगामी दोषों का त्याग करना। कहते हैं। इसके अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग के प्रत्यय ५१ भेद से २ भेद हैं। अन्तरङ्ग १४ प्रकार का आस्रव के कारण। मिथ्यात्व, अविरमण, और बहिरङ्ग १० प्रकार है। कषाय और योग। परिहार प्रमत्त मिथ्यात्व तथा रागादिक दोषों से आत्मा प्रथम से षष्ठगुणस्थान तक के जीव प्रमत्त का निवारण करना परिहार हैं। कहलाते हैं। पर्याय ७६ प्रभावना अंग २३६ कालक्रम से होनेवाली द्रव्य की अवस्था विद्यारूपी रथपर आरूढ होकर जिनेन्द्रदेव को पर्याय कहते हैं। के ज्ञान की प्रभावना करना। पर्याप्त प्रमाण जिनकी शरीरपर्याप्ति पूर्ण हो चुकती है जो पदार्थ के परस्पर विरोधी दोनों धर्मों को उन्हें पर्याप्त कहते हैं। ग्रहण करता है उसे प्रमाण कहते हैं। प्रमाणनाम ज्ञान का हैं। इसके प्रत्यक्ष और रूप, रस, गन्ध और स्पर्श से सहित द्रव्य परोक्ष के भेद से दो भेद हैं। सर्वदेशप्रत्यक्ष पुद्गलद्रव्य है। ज्ञानावरणादि कर्म पुद्गलद्रव्य और एकदेशप्रत्यक्ष की अपेक्षा प्रत्यक्ष के ही हैं। भेद हैं। परोक्षप्रमाण के स्मृति, प्रतिक्रमण ३८३ प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम ये पूर्वकत शुभाशुभ कर्मों से अपने को पांच भेद हैं। दूसरी विवक्षा से मति और पश्चात्ताप करना। श्रुत परोक्षप्रमाण हैं। प्रतिक्रमण ३०६ प्राकरणिक १९७ किये हुए दोषों का निराकरण करना विवाह आदि कार्यों के स्वामित्व को रखने प्रतिक्रमण है। वाला व्यक्ति इसे बुंदेलखण्ड में 'पगरेत' प्रज्ञा २९४ कहते है। बन्ध भेदज्ञान रूपबुद्धि। ७१ प्रतिसरण कषायसहित परिणामों के कारण सम्यक्चारित्र में आत्मा को प्रेरित करना आत्मप्रदेशों के साथ कर्मप्रमद्रेशों का प्रतिसरण है। एकक्षेत्रावगाहरूप सम्बन्ध होना बन्ध है। भाव्यभावक भाव ९५ प्रत्याख्यान ३४ जिसका अनुभव किया जाता है उसे भाव्य पर का त्याग करना। और जो अनुभव करता है उसे भावक ३०६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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