Book Title: Samaysara
Author(s): Ganeshprasad Varni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 516
________________ परिशिष्ट ४४५ अर्थ—मैं शरीर के द्वारा जीवों को दु:खी करता हूँ, यदि ऐसी तू बुद्धि करता है तो तेरी यह सब बुद्धि मिथ्या है क्योंकि कर्म के द्वारा ही जीव दु:खी होते हैं। __मैं वचन के द्वारा जीवों को दुःखी करता हूँ, यदि ऐसी बुद्धि करता है तो तेरी यह सब बुद्धि मिथ्या है क्योंकि कर्म के द्वारा ही जीव दु:खी होते हैं। मैं मन के द्वारा जीवों को दु:खी करता हूँ, यदि ऐसी तेरी बुद्धि है तो तेरी यह सब बुद्धि मिथ्या है क्योंकि कर्मों के द्वारा जीव दु:खी होते हैं। मैं शस्त्र के द्वारा जीवों को दुःखी करता हूँ यदि ऐसी तेरी बुद्धि है तो यह सब मिथ्या है क्योंकि जीव कर्म से ही दुःखी होते हैं। __मैं शरीर, वचन और मन के द्वारा जीवों को सुखी करता हूँ, ऐसी यदि तेरी बुद्धि है तो यह सब मिथ्या है क्योंकि कर्म से ही जीव सुखी होते हैं। (२७० और २७१ वीं गाथा के बीच) जा संकप्पवियप्पो ता कम्मं कुणदि असुहसुहजणयं। अप्पसरूवा रिद्धी जाव ण हियए परिप्फुरइ।। अर्थ-जब तक बाह्य पदार्थों में संकल्प और विकल्प करता है तथा जब तक हृदय में आत्मस्वरूप ऋद्धि प्रस्फुरित नहीं होती है तब तक शुभ-अशुभ को उत्पन्न करनेवाले कर्म को करता है। ___ भावार्थ-स्त्री, पुत्र तथा शरीर आदि पदार्थों में 'ये मेरे हैं' इस प्रकार के भाव को संकल्प कहते हैं, और अन्तरङ्ग में हर्ष-विषादरूप परिणति को विकल्प कहते हैं। जब तक ये दोनों विद्यमान रहते हैं तब तक पुण्य-पाप कर्मों का बन्ध होता है। परन्तु जब हृदय में शुद्धात्मस्वरूप का ध्यान जागृत होता है और उपर्युक्त संकल्प-विकल्प दूर हो जाते हैं तब सब प्रकार का बन्ध रुक जाता है। (२८५ और २८६ के बीच) आधाकम्मादीया पुग्गलदव्वस्स जे इमे दोसा। कहमणुमण्णदि अण्णेण कीरमाणा परस्स गुणा ।। आधाकम्मं उद्देसियं च पोग्गलमयं इमं दव्वं। कह तं मम कारविदं जं णिच्चमचेदणं वुत्तं ।। अर्थ-अध:कर्म आदिक जो ये पुद्गलद्रव्य के दोष हैं उन्हें तू आत्मा के कैसे मानता है क्योंकि ये दूसरे के द्वारा-गृहस्थ के द्वारा किये हुए पर के आहाररूप Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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