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समयसार
अर्थ - अशुद्ध आत्मा शुद्ध कैसे हो जाता है, इसका दृष्टान्तपूर्वक कथन करते - जिस प्रकार संपाफनी की जड़, हस्तिनी का मूत्र और सिन्दूर के साथ शीशा धोंकनी की वायु से गलाने पर सुवर्ण बन जाता है उसी प्रकार अशुद्ध आत्मा शुद्ध बन जाता है।
कम्मं हवेई किट्टं रागादी कालिया अह विभावो । सम्मत्तणाणचरणं परमोसहमिदि वियाणाहि ।। झाणं हवेइ अग्गी तवयरणं मत्तली समक्खादो । जीवो हवेइ लोहं धमियव्वो परमजोईहिं || अर्थ — कर्म कीट है, रागादिक विभाव कालिमा है, सम्यक्त्व, ज्ञान और चारित्र परम औषधि है, ऐसा जानो । ध्यान अग्नि है, तपश्चरण मातली - पात्र कहा गया है और आत्मा लोहा है । परम योगीश्वरों को इसे तपाना चाहिये ।
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भावार्थ — जिस प्रकार किसी पात्र में रखकर लोहे को परम औषधि के साथ अग्नि में तपाने से वह सुवर्ण बन जाता है तथा उसकी कीट और कालिमा भस्म हो जाती है। इसी प्रकार तपश्चरणरूपी पात्र में जीवरूपी लोहे को सम्यक्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप परम औषध के साथ ध्यानरूपी अग्नि में तपाने से यह जीव शुद्ध हो जाता है तथा उसकी द्रव्यकर्म रूपी कीट और रागादिकभावकर्मरूप कालिमा भस्म हो जाती है।
(२६९ और २७० के बीच)
कायेण दुक्खवेमिय सत्ते एवं तु जं मदिं कुणसि । सव्वा वि एस मिच्छा दुहिदा कम्मेण जदि सत्ता ।। वाचाए दुक्खवेमिय सत्ते एवं तु जं मदिं कुणसि । सव्वा वि एस मिच्छा दुहिदा कम्मेण जदि सत्ता । । मणसाए दुक्खवेमिय सत्ते एवं तु जं मदिं कुणसि । सव्वा वि एस मिच्छा दुहिदा कम्मेण जदि सत्ता । । सच्छेण दुक्खवेमिय सत्ते एवं तु जं मदिं कुणसि । सव्वा वि एस मिच्छा दुहिदा कम्मेण जदि सत्ता । । कायेण च वाया वा मणेण सुहिदे करेमि सत्ते ति । एवं पि हवदि मिच्छा सुहिदा कम्मेण जदि सत्ता । ।
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