Book Title: Samaysara
Author(s): Ganeshprasad Varni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 513
________________ ४४२ समयसार अर्थ- आत्मा उदयागत द्रव्य कर्म का निमित्त पाकर जिस प्रकार अपने भाव को करता है उसी प्रकार द्रव्य कर्म का निमित्त पाकर अपने भाव का वेदन करता है। भावार्थ- निश्चयनय से आत्मा अपने ही भाव का कर्ता है और अपने ही भाव का भोक्ता है। (१२५ और १२६वीं गाथा के बीच) जो संगं तु मुइत्ता जाणदि उवओगमप्पगं सुद्ध। तं हिस्संगं साहुं परमट्ठवियाणया विंति।। ___ अर्थ- जो साधु बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह को छोड़कर उपयोग लक्षण से युक्त अपने शुद्ध आत्मा को जानता है उसे परमार्थ का ज्ञाता नि:संग-निर्ग्रन्थ साधु कहते हैं। जो मोहं तु मुइत्ता णाणसहावाधियं मुणदि आदं । तं जिदमोहं साहुं परमट्टवियाणया विति ।। अर्थ—जो साधु समस्त चेतन-अचेतन एवं शुभ-अशुभ परद्रव्यों से मोह छोड़कर ज्ञानस्वभाव से परिपूर्ण आत्मा को जानता है उसे परमार्थ के ज्ञाता पुरुष जितमोह कहते हैं। जो धम्मं तु मुइत्ता जाणदि उवओगमप्पगं सुद्ध। तं धम्मसंगमुक्कं परमट्टवियाणया विति।। अर्थ—जो साधु शुद्धोपयोग परिणामरूप धर्म अर्थात् पुण्यशक्ति को छोड़कर उपयोग लक्षण से युक्त शुद्ध आत्मा को जानता है उसे परमार्थ के ज्ञाता पुरुष धर्मसंग से मुक्त कहते हैं। (१८९ और १९० के बीच) उवदेसेण परोक्खं रूवं जह पस्सिदूण णादेदि। भण्णदि तहेव घिप्पदि जीवो दिट्ठो य णादो य। अर्थ—परोक्ष आत्मा का ध्यान किस प्रकार होता है, इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार कोई पुरुष किसी के उपदेश से परोक्ष रूप को देखकर कहता है कि मैंने उसे देख लिया, जान लिया। इसी प्रकार आगम के उपदेश से जीव को ग्रहण कर लिया, देख लिया तथा जान लिया, ऐसा कहा जाता है। For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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