Book Title: Samaysara
Author(s): Ganeshprasad Varni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 511
________________ परिशिष्ट १ तात्पर्यवृत्ति में व्याख्यात और आत्मख्याति में अव्याख्यात गाथाओं का अर्थ - (१०वीं और ११वीं गाथा के बीच) णाणम्हि भावणा खलु कादव्वा दंसणे चरित्ते य। ते पुण तिण्णि वि आदा तम्हा कुण भावणं आदे।। अर्थ- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों में भावना करना चाहिये और वे तीनों चूँकि आत्मा हैं, इसलिए आत्मा में करना चाहिये। भावार्थ- पूर्वार्ध में गुण और गुणी का भेद स्वीकृतकर सम्यग्दर्शनादि तीन गुणों का पृथक् निर्देश किया है और उत्तरार्ध में गुण-गुणी का अभेद स्वीकृत कर कहा गया है कि जिस कारण सम्यग्दर्शनादि तीनों गुण आत्मा ही हैं इसलिए आत्मा की ही भावना करना चाहिये। जो आदभावणमिणं णिच्चुवजुत्तो मुणी समाचरदि। सो सव्वदुक्खमोक्खं पावदि अचिरेण कालेण।। अर्थ- जो मुनि निरन्तर उसी ओर उपयोग लगाकर इस आत्म-भावना को करता है वह थोड़े ही समय में समस्त दुःखों से छुटकारा पा जाता है। भावार्थ- आत्मध्यानकी अपूर्वम महिमा है। निरन्तर तन्मयीभाव से जो आत्मध्यान करता है- सब ओर से विकल्प-जाल को हटाकर आत्मस्वरूप में स्थिर होता है वह शीघ्र ही मोक्ष का पात्र होता है। (१५वीं और १६वीं गाथा के बीच में) आदा खु मज्झ णाणे आदा मे दसणे चरित्ते य। आदा पच्चक्खाणे आदा मे संवरे जोगे।। अर्थ- निश्चय से मेरा आत्मा ज्ञान में है, दर्शन में है, चारित्र में है, प्रत्याख्यान में हैं, संवर में है और योग-निर्विकल्पक समाधि में है। भावार्थ- गुण-गुणी में अभेद-विवक्षा से कथन है कि मेरा आत्मा ही ज्ञानदर्शनादिरूप है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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