Book Title: Samaysara
Author(s): Ganeshprasad Varni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 491
________________ ४२० समयसार स्याद्वादी तु चिदात्म्ना परिमृशंश्चिद्वस्तु नित्योदितं टङ्कोत्कीर्णघनस्वभावमहिमाज्ञानं भवन् जीवति।।२५९।। अर्थ- अज्ञानी एकान्तवादी, उत्पाद-व्यय से मुद्रित-युक्त होने के कारण प्रवर्तमान ज्ञानांशों की नानारूपता का निश्चय होने से क्षणभङ्ग के सङ्ग में पड़ा प्रायः नाश को प्राप्त होता है। परन्तु स्याद्वादी चैतन्यस्वरूप से चैतन्य वस्तु का अनुभव करता हुआ नित्योदित तथा टङ्कोत्कीर्ण घनस्वभावमहिमा से युक्त जो ज्ञान है उस रूप होता हुआ जीवित रहता है। ___ भावार्थ- एकान्तवादी कहता है कि जिस प्रकार ज्ञेय के आकार उत्पाद और व्यय से सहित हैं अर्थात् उपजते और विनशते हैं, उसी प्रकार प्रवर्तमान जो नाना ज्ञान के अंश हैं वे भी उत्पाद-व्यय से युक्त हैं अर्थात् उपजते और विनशते हैं। एतावता ज्ञान को क्षणभङ्गुर मानता हुआ अज्ञानी नाश को प्राप्त होता है। परन्तु स्याद्वादी कहता है कि ज्ञान क्षणभङ्गर होने पर भी अपने चैतन्यस्वरूप से चिद्वस्तु का स्पर्श करता हुआ नित्य उदयरूप रहता है तथा टङ्कात्कीर्ण घनस्वभाव की महिमा से युक्त होता है। एतावता इस ज्ञानरूप होता हुआ स्याद्वादी जीवित रहता है। यह नित्यपन का तेरहवाँ भङ्ग है।।२५९।। शार्दूलविक्रीडितछन्द टोत्कीर्णविशुद्धबोधविसराकारात्मतत्त्वाशया वाञ्छत्युच्छलदच्छचित्परिणतेभिन्नं पशुः किञ्चन। ज्ञानं नित्यमनित्यतापरिगमेऽप्यासादयत्युज्ज्वलं स्याद्वादी तदनित्यतां परिमृशंश्चिद्वस्तुवृत्तिक्रमात्।।२६० ।। अर्थ- एकान्तवादी अज्ञानी, टङ्कोत्कीर्ण निर्मल ज्ञान के प्रवाह रूप आत्मत्त्व की आशा से ज्ञान को उछलती हुई निर्मल चैतन्यपरिणति से भिन्न कुछ अन्य ही नित्यद्रव्य मानता है। परन्तु स्याद्वादी, चिद्वस्तु (आत्मा की) परिणतियों के क्रम से उस ज्ञान की अनित्यता का अनुभव करता हुआ ऐसे ज्ञान को प्राप्त होता है जो अनित्यता से युक्त होने पर भी उज्ज्वल-निर्मल रहता है। भावार्थ:- अज्ञानी एकान्तवादी, ज्ञान को द्रव्यरूप मानकर नित्य ही स्वीकार करता है। परन्तु स्याद्वादी उपजते और विनशते हुए ज्ञेयाकार रूप पर्यायों की अपेक्षा उसे अनित्य स्वीकार करता है, ऐसा ज्ञान पर्यायों के उपजने और विनशने की अपेक्षा अनित्य होने पर भी उज्ज्वल रहता है क्योंकि पर्यायों का उपजना और विनशना वस्तु का स्वभाव है। यह अनित्यपन का चौदहवाँ भङ्ग है।।२६०।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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