Book Title: Samaysara
Author(s): Ganeshprasad Varni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

View full book text
Previous | Next

Page 505
________________ ४३४ समयसार ओर क्षणभङ्गर है तो इस ओर निरन्तर उदयरूप रहने से ध्रुव है, इस ओर परम विस्तृत है तो इस ओर स्वकीय प्रदेशों से धारण किया हुआ है। भावार्थ- यहाँ पर अनेक दृष्टियों को हृदय में रखकर अमृतचन्द्र स्वामी आत्मा के विभव का वर्णन कर रहे हैं। पर्यायदृष्टि से आत्मा अनेकता को प्राप्त है, द्रव्यदृष्टि से एकता को प्राप्त है, क्रमभावी पर्याय की दृष्टि से आत्मा क्षणभङ्गुर है, सहभावी गुण की दृष्टि से ध्रुवरूप है, ज्ञान की अपेक्षा सर्वगत दृष्टि से आत्मा परम विस्तार को प्राप्त है और स्वकीय प्रदेशों की अपेक्षा आत्मप्रदेशों के परिमाण है। इन विविध शक्तियों के कारण आत्मा में परस्पर विरुद्ध धर्मों का समावेश भी सिद्ध हो जाता है।।२७२।। आगे आत्मा की उसी आश्चर्यकारक महिमा का वर्णन फिर भी करते हैं पृथ्वीछन्द कषायकलिरेकतः स्खलति शान्तिरस्त्येकतो भवोपहतिरेकतः स्पृशति मुक्तिरप्येकतः। जगत्रितयमेकतः स्फुरति चिच्चकास्त्येकत: स्वभावमहिमात्मनो विजयतेऽद्भुतादद्भुतः।।२७३।। अर्थ- एक ओर कषाय से उत्पन्न कलह स्खलित हो रहा है-स्वरूप से भ्रष्ट हो रहा है तो एक ओर शान्ति विद्यमान है। एक ओर संसार की बाधा है तो एक ओर मुक्ति स्पर्श कर रही है। एक ओर तीनों लोक स्फुरायमान होते हैं तो एक ओर चैतन्यमात्र ही सुशोभित होता है। आचार्य कहते हैं कि अहो! आत्मा के स्वभाव की महिमा अद्भुत से अद्भुत-अत्यन्त आश्चर्यकारी विजयरूप प्रवर्त रही हैसर्वोत्कृष्टरूप से विद्यमान है। भावार्थ- जब विभावशक्ति की अपेक्षा विचार करते हैं तब आत्मा में कषाय का उपद्रव दिखाई देता है, और जब स्वभाव दशा का विचार करते हैं तो शान्ति का प्रसार अनुभव में आता है। कर्मबन्ध की अपेक्षा जन्म-मरणरूप संसार की बाधा दिखाई देती है और शुद्धस्वरूप का विचार करने पर मुक्तिस्पर्श अनुभव में आता है। स्व-परज्ञायकभाव की अपेक्षा विचार करने पर आत्मा लोकत्रय का ज्ञाता है और स्वज्ञायकभाव की अपेक्षा एक चैतन्यमात्र अनुभव में आता है। इस तरह अनेक विरुद्ध धर्मों के समावेश के कारण आत्मस्वभाव की महिमा अद्भुतों में भी अद्भुतअत्यन्त आश्चर्यकारी जान पड़ती है।।२७३।। आगे चिच्चमत्कार का स्तवन करते हैं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542