Book Title: Samaysara
Author(s): Ganeshprasad Varni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 506
________________ स्याद्वादाधिकार मालिनी छन्द जयति सहजतेजःपुञ्जमज्जत्रिलोकीस्खलदखिलविकल्पोऽप्येक एव स्वरूपः । स्वरसविसरपूर्णाच्छिन्नतत्त्वोपलम्भः प्रसभनियमितार्चिशिचच्चमत्कार एषः।।२७४।। अर्थ - अपने स्वभावरूप तेज के पुञ्ज में निमग्न होते हुए तीन लोक सम्बन्धी पदार्थों से जिसमें अनेक विकल्प दिखाई देते हैं तो भी जो स्वरूप की अपेक्षा एक है, जिसे निजरस के समूह से पूर्ण अबाधित तत्त्व की उपलब्धि हुई है तथा जिसकी दीप्ति बलपूर्वक नियमित की गई है अर्थात् जो अपने स्वरूप में निष्कम्प है ऐसा यह चैतन्यचमत्कार जयवंत प्रवर्तता है— सर्वोत्कृष्टरूप से प्रवर्तमान है। ४३५ भावार्थ- यहाँ अन्तमङ्गलरूप से आचार्य चैतन्यचमत्कार का विजय - गान कर रहे हैं। जिस चैतन्यचमत्कार में स्वच्छता के कारण प्रतिभासित तीन लोक सम्बन्धी पदार्थों के निमित्त से अनेक विकल्प स्खलित हो रहे हैं - रुकते हुए अनुभव में आ रहे हैं और उन विकल्पों के कारण जो अनेक रूप दिखाई देता है तो भी स्वरूप की अपेक्षा एक ही है, जिसे निजरस के प्रसार से भरे अखण्ड आत्मतत्त्व की उपलब्धि हुई है और अनन्तवीर्य के कारण जिसकी दीप्ति स्वकीय स्वभाव में बलात् नियमित की गई है, ऐसा चैतन्य चमत्कार सदा जयवंत प्रवर्ते।।२७४।। अब अमृतचन्द्र स्वामी श्लेषालंकार से अपना नाम प्रकट करते हुए आत्मज्योति के देदीप्यमान रहने की आकांक्षा प्रकट करते हैं मालिनीछन्द Jain Education International अविचलितचिदात्मन्यात्मनात्मानमात्मन्यनवरतनिमग्नं धारयद् ध्वस्तमोहम्। उदितममृतचन्द्रज्योतिरेतत्समन्ताज् ज्वलतु विमलपूर्णं निःसपत्नस्वभावम्।।२७५।। अर्थ- जो निश्चल चैतन्यस्वरूप से युक्त आत्मा में निरन्तर निमग्न आत्मा को आत्मा के द्वारा धारण कर रही है, जिसने मोह को नष्ट कर दिया है, जो सब ओर से उदय को प्राप्त है, विमल है, पूर्ण है तथा जिसका स्वभाव प्रतिपक्षी कर्म से रहित है, ऐसी यह कभी नष्ट न होनेवाली अमृतमय चन्द्रमा की ज्योति के समान आह्लाद दायक आत्मज्योति सदा देदीप्यमान रहे । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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