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समयसार
यहाँ इस आत्मा का ज्ञानमात्र से कथन किया है। फिर प्रश्न है कि जब क्रम और अक्रम से प्रवृत्त होनेवाले अनन्त धर्मों से आत्मा तन्मय है तब उसमें ज्ञानमात्रपन कैसे रह सकता है? इसका उत्तर है कि-परस्पर एक दूसरे से भिन्न अनन्त धर्मों के समुदायरूप परिणत एक ज्ञानक्रियारूप से आत्मा स्वयं परिणम रहा है। इसीलिये इस आत्मा के ज्ञानमात्र एकभाव के भीतर पड़नेवाली अनन्त शक्तियाँ उदित होती हैं। नीचे उन्हीं शक्तियों में से कुछ का वर्णन किया जाता है : – (१) आत्मद्रव्य के कारणभूत चैतन्यमात्र भावप्राण को धारण करना जिसका
लक्षण है ऐसी पहली जीवत्वनामा शक्ति है। इस शक्ति के कारण आत्मा
चैतन्यरूप भावप्राण को धारण करता है। (२) अजड़त्व अर्थात् चेतना जिसका स्वरूप है ऐसी दूसरी चितिशक्ति है। इस
शक्ति से आत्मा, ज्ञान और दर्शन चेतनारूप परिणमन करता है। अनाकार उपयोगरूप तीसरी दृष्टि शक्ति है। इस शक्ति से आत्मा पदार्थों को निर्विकल्परूप से देखता है। साकार उपयोगरूप चौथी ज्ञानशक्ति है। इस शक्ति से आत्मा पदार्थों को विकल्पसहित जानता है। अनाकुलतारूप लक्षण से युक्त पाँचवीं सुखशक्ति है। इस शक्ति से आत्मा
सुख का अनुभव करता है। (६) आत्मस्वरूप की रचना की सामर्थ्यरूप छठवीं वीर्यशक्ति है। इस शक्ति से __ आत्मा के सब गुण अपने-अपने स्वभावरूप प्रवर्तन करते हैं।
अखण्डित प्रत्ताप से युक्त जो स्वाधीनपन उससे सुशोभित होना जिसका लक्षण है ऐसी सातवीं प्रभुत्वशक्ति है। इस शक्ति से आत्मा अपने स्वभाव के धारण में परनिरपेक्ष रहता है। सब भावों में व्यापक जो एक ज्ञानभाव तद्रूप आठवीं विभुत्वशक्ति है। इस
शक्ति से आत्मा का ज्ञानगुण अन्य सब भावों में व्यापक होकर रहता है। (९) समस्त विश्व के सामान्य भावरूप परिणत आत्मदर्शन से तन्मय नौवीं
सर्वदर्शित्व शक्ति है। इस शक्ति से आत्म केवलदर्शन से सहित होता है। (१०) समस्त विश्व के विशेषभावरूप परिणत आत्मज्ञान से तन्मय दशवीं
सर्वज्ञत्वशक्ति है। इस शक्ति से आत्मा केवलज्ञान से सहित होता है।
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