Book Title: Samaysara
Author(s): Ganeshprasad Varni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 498
________________ स्याद्वादाधिकार ४२७ (४७) अपने भावमात्र के स्वस्वामीपन से तन्मय संतालीसवीं सम्बन्धशक्ति है। इस शक्ति से आत्मा अपने समस्त भावों का स्वामी स्वयं होता है। अब इन शक्तियों का संकोच करते हुए आचार्य कलशा कहते हैं वसन्ततिलकाछन्द इत्याद्यनेकनिजशक्तिसुनिर्भरोऽपि यो ज्ञानमात्रमयतां न जहाति भावः। एवं क्रमाक्रमविवर्तिविवर्तचित्रं तद्र्व्यपर्ययमयं चिदिहास्ति वस्तु।।२६३।। अर्थ- इस प्रकार जो सैंतालीस शक्तियाँ ऊपर कहीं गई हैं उन्हें आदि लेकर अनेक निजशक्तियों से अच्छी तरह भरा हुआ होने पर भी जो भाव ज्ञानमात्रभाव से तन्मयता को नहीं छोड़ता ऐसा क्रमवर्ती पर्यायों और अक्रमवर्ती गुणों से चित्रित तथा द्रव्य और पर्यायों से तन्मय चैतन्यरूप वस्तु इस संसार में है। भावार्थ- आत्मा यद्यपि अनेक शक्तियों से परिपूर्ण है तो भी वह ज्ञानमात्र भाव से तन्मय है अर्थात् वे समस्त शक्तियाँ आत्मा के ज्ञानमात्रभाव में अन्त:प्रविष्ट हैं। यह चैतन्यरूप आत्मद्रव्य क्रमवर्ती पर्यायों और अक्रमवर्ती गुणों से तन्मय है तथा द्रव्य और पर्यायरूप है। एकान्तवादियों के अनुसार न कवेल द्रव्यरूप है और न केवल पर्यायरूप।।२६३।।। आगे स्याद्वाद की महिमा रूप काव्य कहते हैं वसन्ततिलकाछन्द नैकान्तसंगतदृशा स्वयमेव वस्तु___ तत्त्वव्यवस्थितिरिति प्रविलोकयन्तः। स्याद्वादशुद्धिमधिकामधिगम्य सन्तो ज्ञानीभवन्ति जिननीतिमलङ्घयन्तः।।२६४।। अर्थ- एकान्तदृष्टि से वस्तुत्त्व की व्यवस्था नहीं हो सकती, इस प्रकार स्वयं ही अवलोकन करनेवाले सत्पुरुष जिननीति का जिनेन्द्रदेव के द्वारा प्रतिपादित नयसरणि का उल्लङ्घन न करते हुए स्याद्वाद की अधिक शुद्धि को प्राप्त कर ज्ञानरूप हो जाते हैं-मोक्ष को प्राप्त होते हैं। भावार्थ- वस्तु का जो वास्तविक स्वरूप है उसकी व्यवस्था अनेकान्त से ही होती है एकान्त से नहीं, ऐसा विचार कर जो स्याद्वाद की अधिक शुद्धि को Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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