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समयसार
नहीं होता। उसी प्रकार आत्मा इन विकारीभावों से तन्मय दिखता हुआ भी वास्तव में उनसे तन्मय नहीं है। अतएव जिस प्रकार कोई दर्पण के प्रतिबिम्ब का ज्ञाता होता है उसी प्रकार ज्ञानी जीव इस अधर्म परिणाम का ज्ञाता होता है।।२११।।
आगे ज्ञानी के आहार का भी परिग्रह नहीं है, यह कहते हैंअपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो य णिच्छदे असणं। अपरिग्गहो दु असणस्स जाणगो तेण सो होदि ।।२१२।।
अर्थ-जो इच्छावान् नहीं है वही परिग्रह से रहित कहा गया है। ज्ञानी भोजन को नहीं चाहता है, इसलिये उसके भोजन का परिग्रह नहीं है, यही कारण है कि ज्ञानी महात्मा भोजन का ज्ञायक है।
विशेषार्थ-इच्छा का अर्थ परिग्रह है। जिसके इच्छा नहीं है उसके परिग्रह नहीं है। इच्छा अज्ञानमय भाव है और अज्ञानमय भाव ज्ञानी के होता नहीं हैं, ज्ञानी के तो एक ज्ञानमय ही भाव होता है, इसीसे ज्ञानी आत्मा अज्ञानमय भावरूप इच्छा का अभाव होने के कारण आहार की इच्छा नहीं करता, इसलिये ज्ञानी के अशन (आहार का) परिग्रह नहीं है। ज्ञानात्मक ज्ञायकभाव का सद्भाव होने से यह ज्ञानी केवल ज्ञायक ही होता है।
यद्यपि ज्ञानी जीव की छठवें गुणस्थान तक शरीर की स्थिरता के लिये आहार में प्रवृत्ति होती है, तो भी वह आहार को आत्मा का स्वभाव नहीं मानता, इसलिये आहार करता हुआ भी आहार के परिग्रह से रहित है, वह केवल आहार का ज्ञायक ही होता है।।२१२।।
आगे कहते हैं कि ज्ञानी के पान का भी परिग्रह नहीं हैअपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो णाणी य णिच्छदे पाणं। अपरिग्गहो दु पाणस्स जाणगो तेण सो होदि ।।२१३।।
अर्थ-इच्छारहित ही परिग्रह रहित कहा गया है, ज्ञानी जीव पान की इच्छा नहीं करता है, इसलिये उसके पान का परिग्रह नहीं है, वह तो पान का ज्ञाता
ही है।
विशेषार्थ-इच्छा ही परिग्रह है। जिस पवित्र आत्मा के इच्छा नहीं है उसके परिग्रह का अभाव है। इच्छा अज्ञानमय भाव है और अज्ञानमय भाव ज्ञानी आत्मा के होता नहीं है, ज्ञानी के एक ज्ञानमय भाव का ही सद्भाव है, इसलिये ज्ञानी जीव अज्ञानमय भावरूप इच्छा के अभाव से पान की इच्छा नहीं करता है, इसीसे उस
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