Book Title: Samaysara
Author(s): Ganeshprasad Varni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 467
________________ ३९६ समयसार प्राप्त हो चुका है ऐसे आत्मा को जो आत्मा में ही अपने ज्ञाता-द्रष्टा स्वरूप में ही समीचीनरूप से धारण करना है वही इसमें जो कुछ छोड़ने योग्य था उसे सम्पूर्णरूप से छोड़ दिया और जो ग्रहण करने योग्य था उसे सम्पूर्णरूप से ग्रहण कर लिया। भावार्थ- जिस काल में आत्मा सब ओर से अपनी शक्तियों का संकोच कर अपने ही स्वरूप में लय हो जाता है उस काल में जो त्यागने योग्य था वह सब विशेषरूप से त्याग दिया और जो ग्रहण करने योग्य था वह सब ग्रहण कर लिया। अब आत्मा को न कुछ छोड़ना शेष है और न कुछ ग्रहण करना अवशिष्ट है, इसलिये आत्मा कृतकृत्य अवस्था को प्राप्त होता है।।२३५।। अब यह ज्ञान देहरहित है, यह दिखाने के लिये कलशा कहते हैं अनुष्टुप्छन्द व्यतिरिक्तं परद्रव्यादेवं ज्ञानमवस्थितम्। कथामाहारकं तत्स्यायेन देहोऽस्य शक्यते।।२३६ ।। अर्थ- इस प्रकार ज्ञान जब परद्रव्य से पृथक् अवस्थित है तब वह आहारककर्म और नोकर्म को ग्रहण करनेवाला कैसे हो सकता है, जिससे इसके देह की शङ्का की जा सके। ___ भावार्थ- देह पुद्गल का कार्य है, ज्ञान का नहीं, अत: ज्ञान के देह है, ऐसी आशंका ही नहीं करना चाहिये।।२३६।।। आगे यही भाव गाथाओं में कहते हैंअत्ता जस्सामुत्तो ण हु सो आहारओ हवइ एवं । आहारो खलु मुत्तो जह्मा सो पुग्गलमओ उ ।।४०५।। ण वि सक्कइ घित्तुं जंण विमोत्तुं जं य जं परदव्वं । सो को वि य तस्स गुणो पाउगिओ विस्ससो वा वि ।।४०६।। तह्या उ जो विसुद्धो चेया सो णेव गिण्हए किंचि। णे विमुंचइ किंचि वि जीवाजीवाणं दव्वाणं ।।४०७।। (त्रिकलम्) अर्थ- इस प्रकार जिसका आत्मा अमूर्तिक है वह निश्चय से आहारक नहीं है क्योंकि आहार मूर्तिक है तथा पुद्गलमय है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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